May 08, 2017

अगर त्याग करने योग्य कुछ है तो सिर्फ मन, और कुछ नहीं -- ओशो

ये पुरुष , ये महात्मा , ये साधु-संत, इनके वक्तव्य देखो!!  इनमे क्या हैं ?

इनके सारे वक्तव्य स्त्री - विरोधी हैं । शास्त्रों में सिवाय स्त्री की निंदा के और कुछ भी नहीं है । तो उससे एक बात तो जाहिर होती है कि ये सारे लोग स्त्री पीड़ित रहे हैं, स्त्री से घबडा़ए रहे हैं । ये स्त्री को ही छोड़ कर भागे हैं , इतना तय है ।

                                शंकराचार्य का यह वचन है --
"तत्वं किमेक ? शिवमद्वितीयं ,
किमुत्तमं ? सच्चरितं यदस्ति ।
त्याज्यं सुखं किम् ? स्त्रियमेव ,
सम्यक देयं परमं किम् ? त्वभयं सदैव ।।"
'एक तत्व क्या है ? अद्वितीय शिव तत्व ।सबसे उत्तम क्या है ? सच्चरित्र ।कौन सुख छोड़ना चाहिए ? सब प्रकार से स्त्री-सुख ही ।परम दान क्या है ? सर्वदा अभय ही ।'

शंकराचार्य कहते हैं : 
'कौन सुख छोड़ना चाहिए ?'
त्याज्यं सुखं किम् ? स्त्रियमेव
'सब प्रकार से स्त्री का सुख ही ।'
जैसे सारा सुख शंकराचार्य के मन में स्त्री का सुख ही होकर रह गया है । और स्त्री में क्या सुख है , यह भी तो पूछो !

यह वचन विचारणीय है । एक तरफ यही महात्मागण कहते हैं कि स्त्री में क्या रखा है ----- हड्डी-मांस-मज्जा , लहू मवाद .... ! जैसे इनमें सोना-चांदी भरा हो , हीरे-जवाहरात भरे हों ! और दूसरी तरफ यह भी कहते हैं : 'कौन सा सुख छोड़ना चाहिए ?'इनको सुख भी कहां दिखाई पड़ रहा है ? वहीं ,हड्डी-मांस-मज्जा-रक्त-मवाद , वहीं सुख भी दिखाई पड़ रहा है । 

'सब तरह से स्त्री का सुख ही !'
मन कहां अटका है , इस सूत्र में जाहिर है ।

और यह सूत्र अकेला नहीं है , तुम्हारे शास्त्र इसी तरह के सूत्रों से भरे हैं । ये जिन लोगों ने भी लिखे होंगे , ये स्त्री से भाग कर लिखे गए सूत्र हैं ; स्त्री को जान कर नहीं , पहचान कर नहीं ।

स्त्रियों को इतनी गालियां दी हैं , ये गालियां इस बात का सबूत हैं कि अभी भी कांटा चुभता है ; अभी भी मन मुक्त नहीं हुआ है कहीं अटका हुआ है ;अभी भी सुख स्त्री में ही दिखाई पड़ता है ।

शंकराचार्य कहते हैं , 'कौन सुख छोड़ना चाहिए ? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही ।'

अब इसमें एक बात तो यह मान ही ली गई कि स्त्री में सुख होता है ,जो कि निपट नासमझी की बात है । स्त्री में क्या खाक सुख होता है ! शंकराचार्य यह मान कर ही चल रहे हैं कि स्त्री में सुख होता है ,उसको छोड़ना ही सबसे बडा़ छोड़ना है ;वही सुख छोड़ने योग्य है । सुख है , यह तो स्वीकार कर लिया ।और अगर सुख है तो फिर छोडो़गे कैसे ?

फिर तो तुमने द्वन्द्व खडा़ किया । सुख को कोई भी नहीं छोड़ सकता । दुख ही छोडा़ जा सकता है । सुख को छोड़ने की कोई संभावना ही नहीं है । सुख तो हमारी स्वाभाविक आकांक्षा है ।हम दुख को ही छोड़ सकते हैं । तो जो चीज भी हम जान लेते हैं दुख है , वह छूटने लगती है; और जिसको हम जानते रहते हैं सुख है , उसको हम पकडे़ रहते हैं।

यह कहना : त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव ।
कौन सुख छोड़ना चाहिए ? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही । इसमें मान ही लिया गया कि स्त्री में सुख होता है ।और यह तो पुरुषों को कहा । अब अगर स्त्री पूछे तो उनसे क्या कहोगे ? उनसे कहना पडे़गा, पुरुषों का सुख । लेकिन पुरुष में क्या सुख होता है ? स्त्री में क्या सुख होता है ?भ्रांति है, सुख तो नहीं । और भ्रांतियों को छोड़ना नहीं होता है , जानना होता है , पहचानना होता है ।पहचानने ही से भ्रांति समाप्त हो जाती है । जैसे रस्सी में किसी कोसांप दिखाई पडा़ । शंकराचार्य तो इसका बहुत उदाहरण लेते हैं ।

एक तरफ चिल्लाते रहे ये लोग , कि यह सारा संसार माया है , फिर भी इसमें स्त्री का सुख माया नहीं ! इसमें स्त्री में सुख है । और यह सुख त्याज्य है । बस यही त्याग करने योग्य है , यहां कुछ और त्याग करने योग्य नहीं है । 

मैं तुमसे कहता हूं , .........
त्याग करने योग्य मन है , और कुछ नहीं । स्त्री हो , कि धन हो , कि पद हो , प्रतिष्ठा हो ; सब मन के ही खेल हैं । स्त्री तो बस एक खेल है । स्त्री के लिए पुरुष एक खेल है । और स्त्री से मुक्त हो जाना कोई कठिन मामला नहीं है ।सभी पति अपनी पत्नी से मुक्त हो जाते हैं ।सभी पत्नियां अपने पतियों से मुक्त हो जाती हैं ।

वह तो दूसरों की रस्सियों में सांप दिखाई देते रहते हैं , करो क्या ? अपनी रस्सी को तो सभी पहचान लेते हैं कि रस्सी ही है भइया ,कुछ खास नहीं । कितना ही साडी़ वगैरह पहनाओ , है रस्सी । कितना ही रंग-रोगन पोतो , कितना ही कोट वगैरह पहनाओ ,है रस्सी ! पति-पत्नियां अच्छी तरह पहचान लेते हैं ।तभी तो एक-दूसरे की तरफ देखते भी नहीं ,ऐसे मुक्त हो जाते हैं ।

हां , दूसरों की पत्नियों में अभी भी दिखता है कि पता नहीं ,
साडी़ के भीतर रस्सी न हो , कुछ और हो ! कोट पहने चले जा रहे हैं एक सज्जन ; अब पता नहीं कि कंधों केभीतर रुई भरी है कि सच में कंधे इतने मजबूत हैं ! वृषभ देव हैं या सिर्फ रुई भरी है ? छाती बडी़ फूली मालूम पड़ रही है । हालांकि खुद की छाती वे जानते हैं कि रुई भरी है ।खुद भरवाई है । मगर दूसरों को भ्रम होता रहता है ।

सवाल मन का है............
और स्त्री से छूट जाओगे तो कहीं और दौडो़गे ।जो लोग धन के पीछे दीवाने हैं अक्सर स्त्रियों से छूट जाते हैं ।उनका तो सारा मोह ही धन में लग जाता है ।उनको स्त्री वगैरह नहीं सुहाती । वे तो नोट को जब देखते हैं तब ,उनको लैला की याद आती है । जब वे नोट को छूते हैं , ....ताजा करंसी का नोट , अभी-अभी निकला हुआ ,चला आया अभी-अभी बैंक से । उसको छूते हुए देखो किसी धन -के प्रेमी को । क्या तुमने किसी प्रेमी को किसी प्रेयसी को छूते देखा होगा ! एकदम उसकी लार टपकती है , गदगद हो जाता है , छाती से लगा लेता है । पद के लोभी , राजनीति के युद्ध में दौड़ने वाले योध्दा , उनको पत्नियां वगैरह छोड़ने में कोई अड़चन नहीं होती । फुर्सत ही कहां उनको पत्नियां वगैरह की । दिल्ली जाएं कि पत्नी को देखें ? कभी-कभी मिलना-जुलना हो जाता है , बाकी कोई रस नहीं रहता ।जिनको एक बार पद का , धन का , प्रतिष्ठा का मोह लग गया ,वे इस मोह से बडी़ आसानी से मुक्त हो जाते हैं । ये तो सीधे-सादे लोग हैं जो स्त्री-पुरुषों में उलझे रहते हैं । जो छंटे हुए बदमाश हैं वे तो दूसरी चीजों में लग जाते हैं ।  नहीं कहूंगा कि स्त्री के सुख को छोड़ना सबसे बडा़ त्याग है । जब सुख को ही छोड़ने की बात उठी तो जड़ से ही काटो । मन को छोड़ना सबसे बडा़ त्याग है ।और मन को छोड़ने का परिणाम समाधि है ।मन छोड़ना है , समाधि पानी है ।ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।

मैं तो समाधि से ही सारे सूत्र निकालना चाहता हूं ।
मन का त्याग ---- समाधि !
और समाधि से जो बहता है ---- वह प्रेम ।
वही दान है । क्या अभय ?
मन को छोडो़ , समाधि मिलती है ।

समाधि मिले तो जैसे फूल खिल जाएं और सुगंध उडे़ , ऐसा समाधि में सहस्त्रदल कमल खुलता है ; तुम्हारी चेतना का कमल खुलता है । और उससे सुगंध उड़ती है । उसको दान कहना भी ठीक नहीं । जिसको लेना हो ले , जिसको न लेना हो न ले । कोई न हो तो भी सुगंध उडे़गी ।

इस पूरे शंकराचार्य के सूत्र को अगर मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूंगा :
मन से मुक्ति सबसे बडी़ मुक्ति ।
समाधि की उपलब्धि , सबसे बडी़ उपलब्धि
समाधि में जो जाना जाता है -- अनाम , ओंकार , ताओ
वह सब से बडा़ अनुभव ।
और समाधि से जो सहज गंध उठती है , रोशनी बिखरती है.. 
प्रेम वही सबसे श्रेष्ठ दान ।

-- ओशो रजनीश 


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