May 31, 2017

मोदी के पास बर्लिन में प्रियंका से मिलने का वक्त है लेकिन नंगे-भूखे देश के किसानों से नहीं

जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बॉलीवुड की अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा से मिले। उन्होंने प्रियंका के साथ काफी देर बातचीत की।
अभिनेत्री प्रियंका से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात काफी चर्चा में आ गई। सोशल मीडिया पर तमाम लोग पीएम मोदी पर सवाल उठाने लगे।
लोगों ने कहा कि, पीएम मोदी को देश के भूखे-नंगे औऱ मल-मूत्र पी रहे अऩ्नदाता किसान से मिलने का समय नहीं है लेकिन प्रियंका चोपड़ा से काफी देर मिल रहे हैं। देश के अन्नदाता जन्तर-मन्तर पर कई दिनों तक प्रधानमंत्री से मिलने का वक्त मांगते रहे लेकिन वह किसान नंगे हो उन किसानों ने अपना मूत्र पी लिया लेकिन प्रधानमंत्री फिर भी नहीं मिले। वहीं बर्लिन पहुंचकर प्रियंका चोपड़ा से मिलने का समय निकाल रहे हैं।
तमिलनाडु के किसान कई महीनों तक दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर बैठे रहे थे। वह प्रधानमंत्री से मिलने का वक्त मांगते रहे जिसके लिए उन्होंने एक दिन नंगे होकर संसद के करीब प्रदर्शन किया। इसके बाद अपना मूत्र पीकर प्रदर्शन किया। फिर पीएम मोदी ने मिलने का समय नहीं दिया था।


इसे कहते है नसीब... वो भी रजनीगंधा वाला

प्रियंका चोपड़ा ने क्या नसीब पाया है। वे बर्लिन घूम रही थीं कि आज अचानक नरेंद्र मोदी भी बर्लिन आ गए। फ़ेसबुक पर लिखती हैं कि मोदी जी ने सुबह-सुबह बुला लिया। बढ़िया गपशप हुई।
बेचारे भारत के किसान। नसीब ही ख़राब है जी। नरेंद्र मोदी इसमें क्या कर सकते हैं?

प्रियंका चोपड़ा लाइफबॉय से नहाती है। शैंपू के पाउच से सिर धोती है। पावडर लगाती है। इसलिए मोदी जी बुलाकर उनसे मिलते हैं।
किसान ये सब नहीं करते। पसीने की बदबू आती है। सिर गंदा है। काँख गीली है।
सारे मर जाएँ, तो भी मुलाक़ात मुमकिन नहीं।

अगर आप भी घड़ी साबुन से कपड़े धोएँगे और लाइफबॉय से रगड़-रगड़ कर नहाएँगे तो आप भी प्रियंका चोपड़ा की तरह मोदी और योगी से मिल सकते हैं।


- दिलीप मंडल


भारतीयो की पुरुषवादी मानसीकता का जीता जागता उदाहरण

प्रियंका चोपड़ा ने बर्लिन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात की थी. इस मुलाकात के दौरान पहने कपडो और बैठने के तरीको को लेकर कुछ स्वधोषीत राष्ट्रवादी लोगो ने सोशल मीडिया पर "शालीनता से" कपड़े न पहनने और अपमानजनक आसन में बैठने के लिए सोशल मीडिया पर प्रियंका की जम कर खींचाई करनी शुरु कर दी.


अभिनेत्री  प्रियंका चोपड़ा ने बर्लिन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और फेसबुक पर "lovely coincidence" के बारे में पोस्ट किया. उन्होंने प्रधान मंत्री को अपनी पैक अनुसूची से समय निकालने और उससे मुलाकात के लिए धन्यवाद दिया, लेकिन मोदी साहब के कुछ फैन्स को इस मुलाकात मे प्रियंका ने पहने कपडे और बैठने का ढंग मोदीजी के स्वभाव और रुतबे से विपरीत लगा. उन्हो ने तुरंत प्रीयंका को ट्रोल करना शुरु कर दीया.

प्रधान मंत्री मोदी के साथ की तस्वीर फेसबुक पर पोस्ट करने के बाद, सोशल मीडिया मे रहे मोदी भक्तो ने बहोत आडे हाथ लीया प्रीयंका को. उन्होंने प्रियंका चोपड़ा को अपने पैरों को लपेटने और 'सभ्य कपड़े' पहनने की नसीहत से लेकर संस्कारो तक कमेंट दे दी.

कई फेसबुक यूजर्स ने प्रीयंका के उपर अपनी ऐतीहासीक संस्कृती को भूल जाने का आरोप भी लगा दीया, कुछ का कहना थी की वह एक शुध्ध भारतीय प्रधान मंत्री के सामने "पश्चिमी पोशाक" पहनती थीं. हांलाकी आप को बता दु मोदी साहब जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल से मुलाकात के दौरान खादी कुर्ता पायजामा नहीं पहने थे. सुट बुट मे ही थे.

मोदी चाहको ने उसे सलाह दी कि वह अपने पैरों को कवर करे, या तो एक सलवार कमीज या साड़ी पहनें, और सिर्फ 'शालीनता से' कपड़े पहने रहें, क्योंकि वह एकमात्र तरीका है कि वह प्रधान मंत्री के प्रति सम्मान व्यक्त करने का. ऐसे ऐसे हास्यास्पद कमेंट कीये थे भक्तो ने की हम सच मे उन की समजदारी को जज न कर पाये.

प्रीयंका चोपरा की फेसबूक पोस्ट पर से कुछ कमेंट्स :-











Priyanka's Facebook Post : -


(संपादन - विशाल सोनारा)

कटार जैसी काटने वाली कहानी, जो समझेगा, वो दर्द महसूस करेगा

'जल्दी चलो...गांव की इज्जत खतरे में है.  
हिम्मत देखो उस कमीने की.. छोटी जाति का होकर बैंड-बाजा बजाएगा! 
बैंड बजाकर चार पैसे कमाता था लेकिन नहीं... देखो इसे तो चर्बी चढ़ गई.
बकुल काका 25 सालों से ‘छबीली बैंड पार्टी’ में बैंड बजाकर अपने परिवार का पेट पाला करते थे. शादियों के मौसम में घर में बहार रहती और शादियों का मौसम जाते ही घर में दाने-दाने को तिजोरी में बंद करके रखने-सी नौबत आ जाती थी. 
परिवार के नाम पर उनकी 18 साल की बेटी और बीमार पत्नी थी. बकुल काका की बेटी बचपन से अपने पिता को लाल रंग का बदरंग होता कुर्ता पहनकर बैंड बजाते हुए देखा करती थी. कभी-कभी बकुल काका उसे अपने साथ ले जाते थे. उसे बचपन से दुल्हन को देखने का बहुत शौक था. वक्त बीता और एक रोज वो घड़ी आ ही गई, जब बकुल काका की बेटी की शादी तय हो गई. शादी के एक दिन पहले बेटी अपने पिता से पूछ बैठी ‘बाबा आप मेरी शादी में भी बैंड बजाएंगे?’
बकुल काका बेटी के सवाल पर मुस्कुरा दिए और अपने बदरंग लाल कुर्ते पर हाथ फेरने लगे. उस रात बेटी तो सो गई लेकिन बकुल काका की आंखों में नींद नहीं थी. 
'भला मैं छोटी जात का आदमी अपने घर के उत्सव में बैंड कैसे बजा सकता हूं? लोग, समाज और गांव वाले क्या कहेंगे? जीना हराम हो जाएगा मेरा! मैं रोजी-रोटी कमाने के लिए बड़े लोगों के घर बैंड बजाता हूं...लेकिन अपने यहां!'
रात इसी उधेड़बुन में कट गई. फिर मन में एक ख्याल कौंधा. ‘आज तक बेटी को दिया ही क्या है? बैंड-बाजा बजाना ही मेरी कला है और यही मेरी रोजी-रोटी. मैं अपनी कला बेटी के नाम करता हूं यही उसे मेरा तोहफा है.’
उस रात बकुल काका ने अपनी दुल्हन बेटी को नजर भर के देखा. उनकी आंखों से आसूं झलक रहे थे. तभी एक चमत्कार हुआ. जाति के भेद को भेदते हुए बैंड ने समां बांध दिया. बेटी मग्न होकर झूम उठी. काका की बीमार पत्नी बिस्तर पर बैठी-बैठी ही तालियों की थाप दे रही थी.
इतने में गांव के मुट्ठी भर लोग मंडप में आ धमके और बकुल काका की हिम्मत को बुरी तरह रौंद डाला. खाने-पीने का सारा सामान आग के हवाले करते हुए बारातियों से खूब हाथापाई हुई. चारों तरफ गालियों, उपहास और लानतों की विषैली बौछार हो रही थी. बकुल काका इतना सब होने पर भी अपनी बात पर अड़े रहे और बैंड बजाने के लिए माफी मांगने को तैयार नहीं थे. अचानक चौधरी के बेटे का खून उबल पड़ा और उसने बकुल काका के सीने पर बंदूक तान दी. बकुल काका सीना तानकर खड़े रहे.
काका की आंखों में डर को ना देखकर चौधरी का बेटा बौखला गया. उसने दांत पीसते हुए बकुल काका पर गोली चला दी, अगले ही पल जमीन पर धम्म से किसी के गिरने की आवाज हुई. बकुल काका सही-सलामत खड़े थे लेकिन उनकी बीमार पत्नी ने उनकी बला अपने सिर ले ली थी. इतने सालों से जो औरत बिस्तर से सही से खड़ी भी नहीं हो पाती थी, वो अपने पति को मुश्किल में देखकर चीते की फुर्ती से उठ खड़ी हुई थी, लेकिन बस चंद पलों के लिए.
शादी का माहौल कुछ ही घंटों में सदमे-शोक में बदल चुका था. दबंग लोग अपनी चौड़ी छाती और तनी हुई मूंछे लेकर वापस जा चुके थे.
बकुल काका और उनकी बेटी पूरी रात यूं ही बैठे रहे.
अगली सुबह गांव भर में एक बार फिर से बकुल काका की झोपड़ी से बाजे और डफली की आवाज आ रही थी. चौधरी और गांव के दूसरे दबंग लाठी, बंदूक, भाले लेकर बकुल काका की झोपड़ी की तरफ दौड़ पड़े.
पूरा गांव बकुल काका के घर के सामने उमड़ पड़ा. वहां का नजारा देखकर सब सन्न थे.
काका बैंड को अपनी पूरी जान लगाकर बजा रहे थे. उनकी आंखों से आसूं झरझर बह रहे थे. उनकी बेटी मेंहदी लगे हाथों से डफली पर थाप दे रही थी. सामने सफेद कपड़े में लिपटी पत्नी की लाश पड़ी थी. 
मातम ने एक ऐसे उत्सव का रूप ले लिया था, जहां शहीद पत्नी को एक पति अंतिम विदाई दे रहा था. बाजे, डफली इंसान बनकर समाज पर हंस रहे थे और वहां खड़े मूंछों वाले लोग अपाहिज हो चुके थे, दिमागी अपाहिज.
(ये कहानी मध्यप्रदेश के माणा गांव में हुई एक सच्ची घटना से प्रेरित है)
साभार- प्रतिमा जायसवाल