By Social Media Desk
पूरा नाम : झलकारी बाई
जाति : कोरी , बहुजन
जन्म : 22 नवम्बर 1830
मृत्यु ः 1858
जन्म स्थान : भोजला ग्राम
पिता : सदोबा सिंह कोरी
माता : जमुना देवी
विवाह : पूरन सिंह
कोरी
झलकारी बाई का
इतिहास :
झलकारी बाई का
जन्म एक साधारण
कोरी परिवार में
हुआ था। वे
एक साधारण सैनिक
की तरह रानी
लक्ष्मीबाई की सेना
में शामिल हुई
थी। लेकिन बाद
में वह रानी
लक्ष्मीबाई की विशेष
सलाहकार एवं महिला
सेना की सेनापति
बनी और महत्वपूर्ण
निर्णयों में भी
भाग लेने लगी।
बगावत के समय,
झाँसी के किले
पर युद्ध के
समय वह अपने
आप को झाँसी
की रानी कहते
हुए लड़ी ताकि
रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित
रूप से आगे
बढ़ सके.
बुन्देलखण्ड
में झलकारी बाई
कोरी की महानता
एवं वीरता को
हमेशा याद किया
जाता है।
उनका जीवन और
विशेष रूप से
ईस्ट इंडिया कंपनी
के साथ उनके
लड़ने की कला
को बुन्देलखण्ड ही
नही बल्कि पूरा
भारत हमेशा याद
रखेगा। कोरी जाति
के तौर पर
उनकी महानता ने
उत्तरी भारत में
कोरी जाति के
जीवन पर काफी
प्रभाव डाला। बाद में
कुछ समय बाद
ब्रिटिशों द्वारा झलकारीबाई को
फाँसी दे दी
गयी थी।
उनके नाम को
कोरी जाति का
सम्मान और गर्व
बताया जाता है।
इसे देखते हुए
उनके जीवन पर
काफी शोध किये
गये और उनके
जीवन के बारे
में कुछ रोचक
तथ्य भी मिले।
लेकिन अधिकतर समय
झलकारी बाई को
कोरी जाति की
इतिहासिक नायिका कहा गया
है।
झलकारी बाई कोरी
की जीवनी –
झलकारी बाई सदोबा
सिंह और जमुना
देवी की बेटी
थी। उनका जन्म
22 नवम्बर 1830 को झाँसी
के नजदीक भोजला
ग्राम में हुआ
था। उनकी माता
के मृत्यु के
बाद, जब वह
किशोर थी, तब
उनके पिता ने
उनका एक बेटे
की तरह पालन
पौषण किया, बचपन
से ही वह
घुड़सवारी और हथियार
चलाने में माहिर
थी। लेकिन उस
समय की सामाजिक
परिस्थितियों को देखते
हुए, झलकारी बाई
प्रारंभिक शिक्षा नहीं ले
सकीं। लेकिन एक
योद्धा की तरह
झलकारी बाई ने
काफी प्रशिक्षण प्राप्त
किया था।
झलकारीबाई को रानी
लक्ष्मीबाई के समान
माना जाता है।
उन्होंने एक तोपची
सैनिक पूरन सिंह
से विवाह किया
था। जो रानी
लक्ष्मीबाई के ही
तोपखाने की रखवाली
किया करते थे,
पूरन सिंह कोरी
ने ही झलकारीबाई
को रानी लक्ष्मीबाई
से मिलवाया था।बाद
में झलकारी बाई
भी रानी लक्ष्मीबाई
की सेना में
शामिल हो गयी
थी। सेना में
शामिल होने के
बाद झलकारीबाई ने
युद्ध से सम्बंधित
अभ्यास ग्रहण किया और
एक कुशल सैनिक
बनी।
1857 के विद्रोह के समय
जनरल रोज ने
अपनी विशाल सेना
के साथ 23 मार्च
1858 को झाँसी पर आक्रमण
किया। रानी ने
वीरतापूर्वक अपने 5000 के सैन्य
दल से उस
विशाल सेना का
सामना किया। रानी
कालपी में पेशवा
द्वारा सहायता की प्रतीक्षा
कर रही थी
,लेकिन उन्हें कोई सहायता
नहीं मिल सकी
क्योकि तात्या टोपे जनरल
रोज से पराजित
हो चुके थे।
जल्द ही अंग्रेज
फ़ौज झाँसी में
घुस गयी थी
और रानी अपनी
झाँसी को बचाने
के लिए जी
जान से लड़
रही थी। तभी
झलकारीबाई ने रानी
लक्ष्मीबाई के प्राणों
को बचाने के
लिये खुद को
रानी बताते हुए
लड़ने का फैसला
किया, इस तरह
झलकारीबाई ने पूरी
अंग्रेजी सेना को
अपनी तरफ आकर्षित
कर रखा था।
ताकि दूसरी तरफ
से रानी लक्ष्मीबाई
सुरक्षित बाहर निकाल
सके।
इस तरह झलकारीबाई
खुद को रानी
बताते हुए लडती
रही और जनरल
रोज की सेना
भी झलकारीबाई को
ही रानी समझकर
उन पर प्रहार
करती रही, लेकिन
दिन के अंत
में उन्हें पता
चल गया था
की वह रानी
नही है।
झलकारीबाई की प्रसिद्धि
:
1951 में वी. एल.
वर्मा द्वारा रचित
उपन्यास झाँसी की रानी
में उनका उल्लेख
किया गया है।
वर्मा ने अपने
उपन्यास में झलकारीबाई
कोरी को विशेष
स्थान दिया है।
उन्होंने अपने उपन्यास
में झलकारीबाई को
कोरियन और रानी
लक्ष्मीबाई के सैन्य
दल की साधारण
महिला सैनिक बताया
है।
एक और उपन्यास
में हमें झलकारीबाई
का उल्लेख दिखाई
देता है।
जो रामचन्द्र हेरन द्वारा
लिखा गया था,
उस उपन्यास का
नाम माटी था।
हेरन ने झलकारीबाई
को “उदात्त और
वीर शहीद” कहा है।
झलकारीबाई कोरी का
पहला आत्मचरित्र 1964 में
भवानी शंकर विशारद
द्वारा लिखा गया
था। भवानी शंकर
ने उनका आत्मचरित्र
का लेखन वर्मा
के उपन्यास और
झलकारी बाई के
जीवन पर आधारित
शोध को देखते
हुए किया था।
बाद में कुछ
समय बाद महान
जानकारो ने झलकारीबाई
की तुलना रानी
लक्ष्मीबाई के जीवन
चरित्र से भी
की।
झलकारीबाई की महानता
:
कुछ ही वर्षो
में भारत में
झलकारीबाई की छवि
में काफी प्रख्याति
आई है, झलकारीबाई
की कहानी को
सामाजिक और राजनैतिक
महत्ता दी गयी
और लोगो में
भी उनकी कहानी
सुनाई गयी। बहुत
से संस्थाओ द्वारा
झलकारीबाई के मृत्यु
दिन को शहीद
दिवस के रूप
में भी मनाया
जाता है।
झलकारीबाई की महानता
को देखते हुए
ही उन्हें सम्मानित
करने के उद्देश
से पृथक बुन्देलखण्ड
राज्य बनाने की
मांग की गयी
थी। भारत सरकार
ने झलकारीबाई के
नाम का पोस्ट
और टेलीग्राम स्टेम्प
भी जारी किया
है।
भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने
अपने पंच महल
के म्यूजियम में
झाँसी के किले
में झलकारीबाई का
भी उल्लेख किया
है।
भारत की सम्पूर्ण
आज़ादी के सपने
को पूरा करने
के लिए प्राणों
का बलिदान करने
वाली वीरांगना झलकारीबाई
का नाम अब
इतिहास के काले
पन्नो से बाहर
आकार पूर्ण चाँद
के समान चारों
ओर अपनी आभा
बिखेरने लगा है।
झलकारी बाई की
बहादुरी को हम
निम्न पंक्तियों में
देख सकते है-
जा कर रण
में ललकारी थी!
वह तो झाँसी
की झलकारी थी!!
गोरों से लड़ना
सिखा गयी!
है इतिहास में झलक
रही,
वह भारत की
ही नारी थी!!