July 22, 2018

आरक्षण तो युं ही बदनाम है...

By Vishal Sonara 


आरक्षण पर रोने का झुनझुना पकडा कर ये लोग देश को खोखला किए जा रहे है और एवरेज बुद्धीजीवी आरक्षण का विरोध और समर्थन मे ही उलझे रहते है. 
कभी किसी ने नही ध्यान दिया की डोक्टर का बेटा डोक्टर कैसे बन जाता है? सब को लगता है की ये उन के डीएनए मे होगा. 
पर ज्यादातर डोक्टरो के माता-पिता तो डोक्टर न थे तो अब उनका डीएनए डोक्टरो वाला कैसे बन गया?
उनका डीएनए और कुछ नही मैनेजमेंट क्वोटा है. मैनेजमेंट क्वोटा से चपरासी बनने के भी लायक न हो ऐसे लोग डोक्टर बनकर समाज मे आ जाते है और कभी किसी के पेट मे कैची छोड देते है तो कभी लोगो की जेब पर भी कैची चला लेते है.

"अहमदाबाद सिविल होस्पीटल के तिन डोक्टरो ने 2012 में किए ओपरेशन मे महिला के पेट मे कैंची छोड देने के कारण 5 साल बाद मौत हुई.
जो तिन डोक्टर ,जीन्होने ओपरेशन किया था उनके नाम.
- डॉ हार्दिक बिपीनचंद्र भट्ट
- डॉ सलिल पटेल
- डॉ प्रेरक पटेल"

अगर इस खबर मे नाम मे SC ST OBC या Minorities की सरनेम वाले लोग होते तो अब तक आरक्षण के नाम पर झुनझुना बजा रहे लोग देशव्यापी आंदोलन एरेंज कर चुके होते.



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Poem : આંબેડકર જયંતી

By Jigar Shyamlan ||  Written on 14 April 2018



રેલીમાં આવી ગયા 
બધા હાથમાં 
વાદળી ઝંડાઓ લઈને.
પણ એ ઝંડા પકડવાનો 
સાચો મતલબ 
શું હોઈ શકે જાણો છો?
ખબર નથી બિચારાઓને 
એમના માટે તો 
ભાદરવી પૂનમ કે શ્રાવણ. 
ગણપતિ કે નવરાત્રની ધજાઓ 
પકડો કે આ વાદળી ઝંડાઓ.
એમના માટે બસ ખાલી 
ઝંડા જ બદલાયા છે, 
ડંડાઓ એના એ જ.
બસ ખબર એ જ કોણ 
ભીમરાવ,દલિતોના મસિહા, 
બંધારણના ઘડવૈયા.
બાકી બોધિસત્વ, 
બાવીસ પ્રતિજ્ઞા આપનાર
આંબેડકરને તો ક્યાં એ 
લોકો જાણે છે?
બસ મનુસ્મૃતિ હોમનાર, 
રામ અને કૃષ્ણ પર સવાલ ઉઠાવનાર.
દલિતોના હક્કની લડાઈ લડનાર આંબેડકર 
જ યાદ છે આ લલવાઓને.
પણ મંદીરના બદલે 
પુસ્તકાલય જાઓ, 
બુધ્ધનો ધમ્મ અપનાવનાર.
કોન્ગ્રેસની પાવલીનોય 
સભ્ય ન બનતા કહેનાર 
ભીમ ક્યાં યાદ છે..?
જનોઈધારી ભાજપ, કોન્ગ્રેસને 
વામદળ ઓફીસના 
દરવાજા ઘસો.
પાછા ચૌદ એપ્રિલે હાર-તોરા 
જય ભીમનારાઓથી 
આકાશ ગજવો.
બસ એક દહાડો હાજરી 
બતાવો આ જ 
તમારો આંબેડકર પ્રેમ 
હોઈ શકે.
આ ભલે ભોળા ભોળા 
દલિતોને પ્રેમ લાગે 
પણ મને તો વહેમ જ લાગે.
સમાનતા, સ્વતંત્રતા, બંધુતા અને ન્યાય 
પ્રબુધ્ધ ભારતની મંશા રાખનાર.
આંબેડકર હજી પણ 
રાહ જોતા બેઠા છે..!
કોણ આવી?
આ પ્રતિમાઓમાંથી 
એમના પ્રાણ સમી 
વિચારધારાને બહાર કાઢે.
બસ હાર-તોરા પહેરાવી, રેલીઓ કાઢી, 
ડાયરાઓની રમઝટ બોલાવી.
આખો દા'ડો જય ભીમ 
જય ભીમ પોકારો 
એટલે ઉજવણી પૂરી.
આવુ બધુ માનનારા 
એટલા જ માસુમ છે
સાવ બાળક બુધ્ધિ જેવા.
જેટલા હવન કરીને 
માની લે છે કે હવે સુખ
સંપત્તિ આંગણે આળોટશે.
બસ એક જ ઉપાય વાંચો 
પછી વિચારો
અણધાર્યુ વિચારીક પરિવર્તન લાવો.
ખુદમાં એક ઈન્કલાબ તો પેદા કરો 
પછી ઝિંદાબાદ કહો.
પણ..! ના આપણને 
એ બધુ પચતુ નથી 
હોજરીઓ એટલી પાકી નથી.
એટલે જ તો વારંવાર 
અર્ધ પચેલા વિચારોની
ઉલટીઓ થાય છે.
આ દર્દ શારીરીક લાગે સૌને 
લક્ષણો પણ તરત દેખાય
શરીર પર.
પણ આની દવા હકીકતમાં 
આ માનસિક 
ઉપચારથી શક્ય છે.
બસ એક દવા વાંચતા રહો 
અને સાથે ધમ્મ, 
બાવીસ પ્રતિજ્ઞાઓની ચરી પાળો.
- જિગર શ્યામલન





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14 अप्रेल ओर बचपन की यादें....।

By Jigar Shyamlan ||  Written on 13 April 2018




जब मै छोटा था तब बाबा साहब को सिफँ फोटो से ही पहचानता था। उनके बारे में ज्यादा कुछ जानकारी नही थी, ईतना ही मालूम था कि यह बाबा साहब है, और उन्होने हमारे लिये काफी कुछ किया है।

14 अप्रैल के दिन मेरे शहर में बाबा साहब की बडी रैली नीकलती थी। 14 अप्रेल की सुबह दोनो महोल्ले के बीचवाले रोड पर एक घर के पास टेबल पर चादर बिछाकर बाबा साहब की छवि रखी जाती थी। उस छवि पर फुलो की माला पहनाई जाती थी। सब लोग उधर रैली आने के ईन्तझार में ईकठ्ठा होते थे।

फिर दुसरे महोल्ले से बाबा साहब के सन्मान मे निकाली गई रैली हमारे महोल्ले में आती थी। फिर हमारे महोल्लै के लोग रैली का स्वागत करते थे। रैली में आये लोग बाबा साहब की छवि पर फुल चढाते थे। फिर वहां से रैली आगे बढती थी, हमारे मोहल्ले के काफी लोग रैली में जाते थे।

मै भी अपने आनंद के लिए रैली में जाता था। चार-पांच ऊंटो की गाडीया होती थी, मै भी दुसरे बच्चो की तरह एक गाडी में बाबा साहब का आदम कद का फौटो लेकर बैठ जाता था। थोडी थोडी देर में जय भीम.. जय भीम के नारे भी बोलता था।

लेकिन उस वक्त कुछ मालूम ही नही था जय भीम का नारा क्या है। ऊंटकी गाडी में बैठकर रैली में पुरा शहर घूमने का बडा मजा आता था।

फिर शाम को महोल्ले में कायँक्रम होता था। उसमें भी पहली लाईन में बैठता था। कोई एक आदमी आता था, बाबा साहब के बारे में कुछ बोलता था, लेकिन मुझे यह सब सूनने की जरा सी भी परवाह न होती थी। मेरा मन तो भाषण के बाद शुरु होनेवाले प्रोग्राम के ही ईन्तजार में रहता था।

यह थी बचपन की 14 अप्रेल की यादें।

फिर बढती उम्र के साथ साथ जब समज आती गई तब बाबा साहब के बारे में जानने लगा, बाबा साहब को पढने की ईच्छा हूई। बाबा साहब को पढना शुरू किया।

जैसे जैसे बाबा साहब को पढता गया वैसे वैसे उनको समजता गया। और जैसे जैसे समजता गया वैसे वैसे उनको मानता गया। तब एक अफसोस हूआ कि बाबा साहब को पढने में काफि देरी कर दी।

आज समाज में बाबा साहब को माननेवाले बहोत से लोग है, लेकिन बाबा साहब को पढकर, उनको माननेवाला एवम उनके बताये गये रास्तो पर चलनेवाले ज्यादा नही।
ज्यादातर लोगो के पास बाबा साहब के बारे में जो कुछ भी जानकारी और विचार है वो खुद के नही, बल्की दूसरो से सूने हुये जाने हुये उधार लिए हुये है।

लोगो ने बाबा साहब को ही पढा नही और नही पढा ईसलिये बाबा साहब को समझ ही नही पा रहे। जब लोग खूद पढेंगें तब जानेगें, और तब ही समझ पायेंगें।

ईसलिये सबसे पहला काम बाबा साहब को जन जन तक पहूंचाना होगा। बाबा साहब की पुस्तके, उनके लेख, भाषण सभी लोगो तक पहुंचाना है।

क्योकि जब लोग बाबा साहब को पढ लेंगे तब दूसरा कुछ और पढने की जरूरत नही होगी। लोग खूद ब खूद समझ जायेंगें।

हमे अपनी नई पीढी को प्रेरणा देनी होगी कि वो बाबा साहब को पढे, तब ही हम आंबेडकरवाद पैदा कर सकेंगें।

ईस 14 अप्रेल को सभी भाईओ से बिनती है कि हमे बाबा साहब की पुस्तके, उनके लेख, भाषण सभी लोगो तक पहुंचाना चाहीए। हमारे मित्र, सगे-संबंधीओ को यह प्रेरणा देनी चाहीए कि वे बाबा साहब को पढे।

बचपन में काफि वक्त था लेकिन तब समज नही थी, अब समज है पर वक्त कम है। परिवार, नौकरी और जिम्मेदारीयो की वजह से वक्त नही दे पा रहा हुं। लेकिन जितना भी वक्त मिलता है या मिलेगा बाबा साहब के विचारो का प्रचार-प्रसार करता रहुंगा।
जय भीम
- जिगर श्यामलन


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भारत के वास्तविक राष्ट्रपिता : ज्योतिबा फूले

By Jigar Shyamlan ||  Written on 11 April 2018





देश के पढे लिखे सवणँ मानसिकता वाले लेखको ने कभी भी बहुजन नायको को न्याय नही दीया। तब ऐसे माहौल में पढे-लिखे बहूजन लोगो का कतँव्य बनता है कि वे अपने महापुरुषो के सच्चे ईतिहास को अपने लोगो के सामने पेश करे। जो आज तक हमसे छीपाया गया है। आज की पोस्ट एक ऐसा ही छोटा सा प्रयास है।

आज 11 अप्रैल..।

सच में वास्तविक महात्मा कहे जानेवाले ज्योतिबा फूले का आज जन्मदिन है।

दोस्तो, भले ही भारत के लोग मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा के रूप में पहचानते हो परंतु मेरा मन कभी भी गांधीजी को महात्मा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। क्योकि गांधीजी एक चतुर राजनेता से विशेष और कुछ नही थे।

भारत के वास्तविक राष्ट्रपिता कहलाने वाला एक ही ईन्सान हो सकते है और वो है 19वी सदी में भारत में वैचारीक क्रान्ति के जरीये सामाजिक क्रान्ति का बीज बोने वाले ज्योतिबा फुले पुरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले। भारतीय विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता।

जब समाज में वर्गभेद और जातिवाद अपनी चरम सीमा पर था। धमँ पर खडी हूई वणँ व्यवस्था के कारण शूद्र वर्ग की दशा अच्छी नहीं थी। उनका भरपूर शोषण हो रहा था। उन पर बहोत सारे प्रतिबंध थे। शूद्र स्वतंत्रता से घूम-फिर नही सकते थे, शूद्र पढ नही सकते थे, शूद्र अपवित्र थे और उनको छूना ठीक परछाई लेना भी पाप था। धमँ में शूद्रो को किसी भी प्रकार का अधिकार नही दीया गया था। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता था। तब ज्योतिबा फूले ने वैचारिक क्रान्ति से सामाजिक क्रान्ति का बिगूल फुंक कर शूद्रो की शिक्षा के लिए सामाजिक संघर्ष का बीड़ा उठाया था।

ज्योतिबा ने समाज में फैली छूआछूत, धमँ के नाम पर चल रहे पाखंड और अनेक कुरूतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया था।

धमँ के आधार पर लागु की गई वणँ व्यवस्था से पीडित और शोषीत समाज के लिये "दलित"शब्द दीया था।
धर्म पर टीका – टिप्पणी करके उन्होने हिन्दू धर्म में विष की तरह फैली हूई जातिगत विषमता को उजागर किया था। धमँ के आधार पर वणँ व्यवस्था से ईन्सान से ईन्सान के हो रहे शोषण को, जाति-भेद और वर्ण व्यवस्था के विरोध में अपने क्रान्तिकारी विचार रखे थे। उन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का भी गठन किया था।

ज्योतिबा यह महसूस करते थे कि जातियों और पंथो पर बंटे इस देश का सुधार तभी संभव है जब लोगो की मानसिकता में सुधार होगा।

ज्योतिबा ने "गुलामगीरी" लिखकर धमँ और वणँ व्यवस्था पर बहुत ही ताकिँक सवाल खडे किये थे। "शिवाजी का पेवाडा"लिखकर शिवाजी जन्मोत्सव मनाना शुरू करके बहूजनो में वैचारीक क्रान्ति की शुरूआत की थी।
आयँ बाहर से ही आनेवाले लोग थे और यहां के बहुसंख्यक लोगो को धमँ के आधार पर गुलाम बनाकर भरपुर शोषण किया था। यह सबसे पहले कहनेवाले ज्योतिबा ही थे।

उस वक्त जात-पात और ऊँच-नीच की दीवारे बहुत ही ऊँची थी। शूद्र एवं स्त्रियों की शिक्षा के रास्ते बंद थे। ज्योतिबा ने इस मनुवादी व्यवस्था को चैलेन्ज दे कर अछूत एवं स्त्रीयो को शिक्षा देने का काम शुरू कर दीया था।

ज्योतिबा द्रढरूप से मानते थे कि–माताएँ जो संस्कार बच्चो पर डालती हैं, उसी में उन बच्चो के भविष्य के बीज होते है। इसलिए स्त्रीयो को शिक्षित करना आवश्यक है।

इस विचार पर अमल करने के लिये उन्होंने वंचित वर्ग एवं स्त्रीयो की शिक्षा के लिए स्कूलों का प्रबंध करने का द्रढ निश्चय किया था।

स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला था जो पुरे देशभर में पहला महीला विद्यालय था। जब लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम किया फिर बाद में अपनी पत्नी सावित्री फूले को शिक्षा देकर ईस काम योग्य बनाया था।

11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा में एक माली के घर में जन्मे ज्योतिबा फूले सच में एक ऐसे दिपक थे जिन्होने सचमूच अछूतो एवं स्त्रीयो को शिक्षा देकर रौशन किया था।

भारत में अछूतो और स्त्रीयो को शिक्षा देने के लिये ज्योतिबा फूले उनकी पत्नी सावित्री फूले और उनको सहयोग करनेवाली फातीमा बीबी द्वारा कीये गये प्रयास सदा ही स्मरणीय रहेंगें।

उन्होने न सिफँ अछूतो की शिक्षा पर काम कीया बल्कि नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानो के हित के लिए काफी उल्लेखनीय कार्य किया है।

ज्योतिबा फूले ने अपने जीवन काल में कई पुस्तकें भी लिखीं थी। सावँजनिक सत्यधमँ, शेतकन्याचा आसूड, तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी का पेवाडा, राजा भोसला का पखड़ा, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत, गुलामगीरी जैसी पुस्तके लिखकर एक वैचारिक क्रान्ति का निमाँण किया था।

बाबा साहब आंबेडकर भी ज्योतिबा से काफी प्रभावित थे और आजीवन प्रभावित रहे। डॉ भीमराव आंबेडकर ने अपने महान शोध ग्रंथ "Who Were The Shudras" ज्योतिबा फूले को ही अर्पित किया था।

लेकिन जातिवाद से ग्रस्त भारत के सवणँ मानसिकता वाले लेखको ने कभी भी ज्योतिबा फूले के सामाजिक सुधार के कायँ को ज्यादा तवज्जो नही दीया। ईसी के कारण सच में महात्मा की छवि चरीताथँ करनेवाले देश के वास्तविक राष्ट्रपिता ज्योतिबा फूले आज भी अनछूए ही रह पाये है।

#सच्चे_महात्मा

#भारत के_वास्तविक_राष्ट्रपिता

#जय फूले

- जिगर श्यामलन



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14 મી એપ્રિલ આવશે ને બાબા સાહેબ આંબેડકર યાદ આવવા માંડશે...

By Jigar Shyamlan ||  Written on 10 April 2018



બાબા સાહેબ આંબેડકરના પુતળાઓ પર જામેલી ધુળ દુર કરવામાં આવશે, પાણીથી ધોવામાં આવશે. પ્રતિમાને માલ્યાર્પણ કરી શકાય તે માટે સીડીઓ ગોઠવાશે.

ઓફીસ કે ધરના માળિયામાં ગોઠવી મુકી રાખેલ અશોક ચક્રની છાપવાળા જયભીમ લખેલા બ્લ્યુ ઝંડાઓ અને સ્લોગનોના બેનરો નીચે ઉતારવામાં આવશે.

મોબાઈલ હેંગ થવા માંડે તેટલી હદે આંબેડકરી વિચારધારાના મેસેજોનો મારો વોટ્સએપ્પ અને ફેસબુક પર થતો રહેશે.

આ દિવસે કેટલાક અનોખા પ્રસંગો પણ જોવા મળશે.


  •  વરસના 365 દિવસ મંદિરોમાં જઈ પથ્થરાઓને નમન કરનારાઓ અને પુજા પાઠ, વ્રત, કથા કરાવનારાઓ.

  •  આખી જિંદગી વણકર અને ચમારના અલગ સંગઠનો બનાવનારાઓ.

  •  પોતાના પેટાજાતિ અને ગોળ-પરગણાનુ મિથ્યાભિમાન કરનારાઓ.

  •  માત્ર ચુંટણી પુરતા જ એસ.સી. બનનારા અને ચુંટણી પછી પોતાના પક્ષના કાબેલ ચમચા બનવા મથનારા રાજનેતાઓ અને આગેવાનો.


આવા બધા નમૂનાઓ બ્લુ વાવટાઓ પકડીને, બાબા સાહેબની પ્રતિમાને માલ્યાપર્ણ કરશે, બાબા સાહેબ વિશે ભાષણોની ભરમાર કરી દેશે, અને ઉછળી ઉછળીને જય ભીમ કરતા દેખાશે.

આ બધુ એક જ દિવસ પછી બીજા દિવસે કોઈ આંબેડકરને યાદ પણ નહી કરે. એટલી હદે કે બીજા દિવસથી બાબા સાહેબ આંબેડકરની પ્રતિમાઓ ધુળ ખાતી થઈ જશે.

આ 14 મી એપ્રિલે પહેરાવેલ ફુલોનો હાર સુકાઈને કચરો બની જશે અને બાબા સાહેબ આંબેડકરની પ્રતિમાની આંખો કચરો બની ચુકેલ ફુલના હારતોરા હવે આવતી 14 મી એપ્રિલ સુધી કોણ હટાવશે એની રાહ જેવામાં અધિરી બની જશે.

મિત્રો આવી રીતે તો વરસોથી ઉજવાતી રહી છે આંબેડકર જયંતિ. બસ એવી જ રીતે આ વરસે પણ ઉજવાશે. અને કદાચ આવનારા વર્ષોમાં ઉજવાતી રહેશે.
આંબેડકર જયંતિની ઉજવણીઓમાં જાણે અજાણ્યે બાબા સાહેબની વિચારધારાને બદલે તેમની પ્રતિમાઓ અને ફોટાઓનુ પૂજન કરવામાં મગ્ન બની રહ્યા છીએ. વિચારધારા ક્યાંય નથી.

કારણ એક સાદો નિયમ એવો છે જો માણસનો સંપુર્ણ નાશ કરી નેસ્તનાબુદ કરવો હોય તો પહેલા તેની વિચારધારાને ખતમ કરો.

સમાજમાં બાબા સાહેબ આજે જીવંત છે પણ માત્ર એક પ્રતિમા બની રહી ગયા છે, જે માત્ર 14 મી એપ્રિલે જ યાદ આવે છે. વિચારધારા ધીરે ધીરે નષ્ટ થઈ રહી છે.
આ વરસની ઉજવણીમાં એક નાનકડી અપિલ છે કે દરેક યુવા મિત્ર જેઓ ખરેખર બાબા સાહેબ પ્રત્યે થોડાક પણ ગંભીર હોય તેવા મિત્રો વરસમાં ઓછામાં ઓછુ એક બાબા સાહેબનું પુસ્તક અવશ્ય વાંચે એમાં પણ બાબા સાહેબે લખેલા વોલ્યૂમ અવશ્ય વાંચે અને બાબા સાહેબને સમજવાનો પ્રયાસ કરે.

માણસ ખતમ થઈ શકે છે પણ વિચારધારા કદીય મરતી નથી એ સદાય જીવંત રહે છે.

કારણ આ લડાઈ બાબા સાહેબના વિચારોની જ છે.
- જિગર શ્યામલન


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વર્ણવ્યવસ્થા અને કેટલીક ભ્રાંતિઓ....

By Jigar Shyamlan ||  Written on 9 April 2018


जन्मना जायते शुद्र: संस्काराद् द्विज उच्यतो
वेदाध्ययनाद् विप्रस्तु ब्रह्मज्ञानाद् ब्राह्मण: ||
(અર્થાત- જન્મથી બધા શુદ્ર જન્મે છે, સંસ્કારથી જ દ્વિજ કહેવાય છે, વેદાધ્યન કરવાથી વિપ્ર અને બ્રહ્મજ્ઞાન થાય તેને બ્રાહ્મણ કહેવાય છે.)

વર્ણવ્યવસ્થાના બચાવમાં કેટલાય વિધ્વાનો એવી દલિલ અને વકીલાત કરે છે કે એ જન્મ આધારિત નહી પણ ગુણ અને કર્મ આધારિત હતી. આ દલિલ પર મને હંમેશા હસવુ આવ્યુ છે, અને આ દલિલને હુ એક જોકથી વિશેષ નથી ગણતો.

વર્ણ વ્યવસ્થા જન્મ આધારિત નહી પણ કર્મ આધારિત હતી એવો સાવ લૂલો બચાવ કરનારા અને આવી દલિલો કરનાર પોતાના બચાવને ઝાઝો ટકાવી રાખવામાં સફળ નિવડતા નથી.

પોતાને હિન્દુ અને સનાતન ધર્મી તરીકે ઓળખાવતા મિત્રો હિન્દુ ધર્મ બાબતે બહુ બે-જવાબદારીપૂર્ણ અને પ્રતિદલીલમાં એક મિનીટ પણ ટકી ન શકે તેવી રજુઆત કરે છે કે હિન્દુ ધર્મમાં જાતિ વિભાજન જન્મને આધારે નહી પણ કર્મને આધારે હતું. ટુંકમાં વર્ણ વ્યવસ્થા કર્મ આધારીત હતી, જન્મ આધારીત નહી.

કારણ જો ખરેખર તેમની વર્ણ વ્યવસ્થા કર્મ આધારિત હતી જન્મ આધારિત નહી વાળી વાત સાચી હોય તો એમની આવી ખોટી અને સત્યથી વિપરીત રજૂઆત સાંભળ્યા પછી શંબૂક, એકલવ્ય કર્ણ અને વિદૂર મારી નજર સામે આવી જાય છે.

શંબૂક, એકલવ્ય, કર્ણ અને વિદુરને શા માટે અપમાન સહન કરવાનો વારો આવેલો...???

  • શંબૂક શુદ્ર હતો, વેદાભ્યાસ કરી રહ્યો હતો. મતલબ બ્રાહ્મણનુ કર્મ કરી રહ્યો હતો. પણ હું પુછવા માંગીશ કે શુદ્ર શંબૂકને બ્રાહ્મણ તરીકે માન્યતા મળી...??? શંબૂક વિધ્યા અભ્યાસ કરી રહ્યો હતો... તો તેને પોતે કરી રહેલ કર્મ મુજબ બ્રાહ્મણ ઘોષિત શા માટે ન કરવામાં આવ્યો..????
    ઉલટાનું શંબૂકને બ્રાહ્મણનુ કર્મ કરવા બદલ રામ દ્વારા હત્યા કરવામાં આવેલી.
  • એકલવ્ય પણ શુદ્ર હતો, ધર્નુવિધ્યા શીખી રહ્યો હતો. મતલબ ક્ષત્રિયનુ કર્મ કરી રહ્યો હતો. શું તેને કદીય ક્ષત્રિય તરીકે માન્યતા મળી..??
    ના.. એકલવ્યને પણ સજાના રૂપે પ્રત્યક્ષ દ્રોણ પાસે ભણ્યો ન હોવા છતાં અંગુઠાની ગુરૂદક્ષિણા આપવી પડી.
    આવો જ અનુભવ વિદ્વાન ધર્નુધારી કર્ણને પણ દ્રોપદીના સ્વયંવર વખતે થયો હતો, સૂતપુત્ર કહીને તેને સ્વયંવરમાં ભાગ લેવાની મનાઈ કરવામાં આવી હતી.
    એકલવ્ય અને કર્ણ બન્ને શસ્ત્રવિધ્યામાં નિપૂર્ણ હતા તો પણ તેમને કદી ક્ષત્રિય બનવા દેવાયા ન હતા.
  • વિદુર પોતે દાસીપુત્ર હોવાના કારણે રાજનિતીનાં એકદમ નિપૂર્ણ હોવા છતાં હસ્તિનાપુરના સિંહાસન પર કદી આરૂઢ ન થઈ શક્યા.


મતલબ હિન્દુ ધર્મમાં જાતિ જન્મ આધારીત નહી પરંતુ કર્મ આધારીત હતી.. એ દલીલોની તો રેવડી દાણ દાણ જ થઈ ગઈ ને.

હા.. એક વસ્તુ ખાતરી આપી કહી શકુ એસ.સી., એસ.ટી. અને ઓ.બી.સી. ગમે તેટલા કર્મ કરે પણ તેમનો વર્ણ શુદ્ર અને ગણ રાક્ષસ જ રહેવાનો.

એવા કેટલાય દુરાચારી, બળાત્કારી, પાપાચારી બ્રાહ્મણો, ક્ષત્રિયો અને વૈશ્યો હતા પણ તેમને નીચલા વર્ણમાં ધકેલી શુદ્ર બનાવી દીધાનો દાખલો કેમ શોધ્યોય જડતો નથી.??

આવી બધી દલિલોના જવાબ આપી નથી શકતા એટલે પછી એમની પેલી 
"અમે તો જાતિમાં માનતા નથી. મારા કેટલાય મિત્રો પછાત સમાજમાંથી છે. અમે સાથે જમીએ છીએ" જેવી વાતો કરવા માંડે.

જો કે આ બધી વાતો કહેવા પાછળ એ એ લોકોનો આડકતરો અર્થ એવો હોય છે કે હવે એવા ઉચ્ચનીચના ભેદભાવ નથી. જો કે હવે જાતિવાદ નથી એવી સુફીયાણી વાતો કરવાવાળાઓનો ગોળ ગોળ પણ સીધો હુમલો સંવિધાનની પ્રતિનિધીત્વની જોગવાઈઓ પર હોય છે. આવા લોકો મને હંમેશા સ્યૂડો હ્યુમિનીસ્ટ જ લાગ્યા છે.

વૈદિક સંસ્કૃતિમાં કે વેદ, પુરાણ, સ્મૃતિ, શ્રુતિ જે પણ સાહિત્ય પોતે શાસ્ત્ર છે કે એવા હોવાનો દાવો કરવામાં આવી રહ્યો છે તેમાં કોઈ જગ્યાએ વર્ણ પરિવર્તન કે નીચલા વર્ણમાંથી ઉપરના વર્ણમાં જવાની કોઈ વિધી વિધાન શા માટે નથી..??

જન્મથી તો સૌ શુદ્ર છે એવી વાત માત્ર શુદ્રોને નિમ્ન બતાવવા માટે જ ઉલ્લેખ કરાઈ છે. વળી તેમાં બ્રાહ્મણ થવા સંસ્કાર, વેદ અભ્યાસ, બ્રહ્મજ્ઞાન વગેરે જેવી વાતો કહેવામાં આવી છે. પરંતુ મહત્વની વાત એ હતી કે શુદ્રોની સંસ્કારવિધી, વેદા અભ્યાસ પર પાબંધી હતી. આ સદંતર બેવડા ધોરણો હતા.

જો જન્મથી જ શુદ્રોને ઉપનયન અને વેદા અભ્યાસનો અધિકાર આપવામાં આવ્યો હોત તો એ પણ યોગ્યતા મુજબ આગળ વધી શક્યા હોત..પણ એવુ નથી થયું
શુદ્રને ઉપનયન સંસ્કાર નહી, ઉપનયન સંસ્કાર વિના વિધ્યા નહી, વિધ્યા વિના વેદાધ્યન નહી, અને વેદાધ્યાન નહી મતલબ બ્રહ્મજ્ઞાન નહી. સીધો જ સાર મતલબ બ્રાહ્મણ નહી.

વર્ણવ્યવસ્થા જન્મ આધારિત જ હતી, કર્મઆધારિત તો કદીય નહી. તેમ છતાં તેવી દલિલો, અને તેને અનુમોદન આપતા સાહિત્યો માત્ર અને માત્ર ભ્રમ ફેલાવે છે બીજુ કંઈ નહી..
- જિગર શ્યામલન



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