भूमिका
वास्तविकता का इतिहास और इतिहासकारों के उपलब्ध इतिहास में फर्क होता है । इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ छोड़ते हैं , कुछ जोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं और फिर इसे ही किसी देश के इतिहास की संज्ञा प्रदान कर दिया करते हैं । ऐसा इतिहास वस्तुतः राजनीतिक शक्ति मात्र का इतिहास होता है जो भारी पैमाने पर हुई हत्याओं तथा अपराधों के इतिहास से भिन्न नहीं है । चिनुआ अचीबी ने लिखा है कि जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे , तब तक हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य - गाथाएँ गाई जाती रहेंगी ।इसीलिए भारत के इतिहास में वैदिक संस्कृति उभरी हुई है , बौद्ध संस्कृति पिचकी हुई है और मूल निवासियों का इतिहास बीच - बीच में उखड़ा हुआ है ।
समय
समय पर इतिहास से संबंधित टिप्पणियों का संग्रह है - " इतिहास का मुआयना "। विशेषकर , भाषा की आँखों से देखा इतिहास ! इतिहास में " श्री " का क्रेज गुप्त काल में था । गुप्तकालीन राजाओं ने अपने नामों से पहले सम्मानसूचक " श्री " जोड़ा है । गवाह है - प्रयाग प्रशस्ति ।उसके पहले इतिहास में " श्री " का ऐसा क्रेज नहीं मिलता है । ऐसे में " श्रीमद्भागवत " का रचना - काल गुप्तयुग हो सकता है ।
पालि में ताँबे का एक अर्थ " लोहा " है । इसका क्या मतलब ? इसका मतलब यह है कि जब लोहे की खोज नहीं हुई थी , तब लोग ताँबे को ही लोहा कहा करते थे । लोहा से लोहित शब्द बना है , लहू भी । लोहित का अर्थ है - लाल रंग का । मगर लोहा तो काला होता है । वह लाल नहीं होता है । लाल रंग का ताँबा होता है । खून के रंग का ताँबा होता है ।इसलिए आप निष्कर्ष दे सकते हैं कि पालि तब की है , जब लोहे की खोज नहीं हुई थी । तभी तो पालि में ताँबे का एक अर्थ " लोहा " भी अवशेष के रूप में मौजूद है ।
इधर बीच मैंने स्वपन कुमार बिस्वास का इतिहास - ग्रंथ " बौद्ध धर्म : मोहनजोदड़ो हड़प्पा नगरों का धर्म " पढ़ा । कोई 400 पन्नों की यह पुस्तक कई साहित्यिक और पुरातात्विक सबूतों के साथ इस बात के पक्ष में लिखी गई है कि सिंधु घाटी की सभ्यता वास्तव में बौद्ध सभ्यता थी ।पुस्तक में विस्तार से बताया गया है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा नगरों में बौद्ध स्तूप मिले हैं । ये बौद्ध स्तूप हड़प्पा कालीन हैं । हड़प्पा - मोहनजोदड़ो के स्तूपों में लगी हुई ईंटें , निर्माण की शैली , स्तूप में मिले बर्तन और बर्तन पर की गई चित्रकारी तक सभी कुछ हड़प्पा युगीन हैं । हड़प्पायुगीन इसलिए भी कि बौद्ध स्तूपों के नीचे कोई अन्य आधारभूत संरचना भी नहीं मिली है कि यह कहा जाए कि इनका निर्माण बाद में हुआ है ।ऐसे तो यह सर्वविदित तथ्य है कि सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में स्तूप नहीं बल्कि स्तूपों की खुदाई में ही सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है ।
अभिलेखीय साक्ष्य पुख्ता सबूत देता है कि गौतम बुद्ध से पहले भी और बुद्ध हुए हैं । आप सम्राट अशोक के निग्लीवा अभिलेख को पढ़ लीजिए , जिसमें लिखा है कि अपने अभिषेक के 14 वर्ष में अशोक ने निग्लीवा में जाकर कनकमुनि बुद्ध के स्तूप के आकार को द्विगुणित करवाया था । कनकमुनि बुद्ध ( कोनागमन ) का स्तूप सम्राट अशोक के काल से पहले बना था । गौतम बुद्ध से कनकमुनि बुद्ध अलग थे और पहले थे ।इतिहासकार के सी श्रीवास्तव ने " प्राचीन भारत का इतिहास और संस्कृति " में लिखा है कि भरहुत लेखों तथा पालि साहित्य में शाक्यमुनि के अतिरिक्त अन्य बुद्धों का भी उल्लेख मिलता है । यदि फाहियान पर यकीन करें तो उसने भी कस्सप बुद्ध और क्रकुच्छंद बुद्ध के स्मृति - स्थल देखे थे । यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर अशोक के अभिलेख सच कैसे हैं ? फाहियान का वृत्तांत सच कैसे है ? भरहुत के लेख सच कैसे है ? और जब सब कुछ झूठ ही है तो फिर आपका इतिहास सच कैसे है ?
" इतिहास का मुआयना " इतिहास में दबे कई गुमनाम पन्नों को खोलने के प्रयास में लिखा गया है । पुस्तक में इतिहास का क्रमबद्ध पुनर्लेखन नहीं है , मगर जगह - जगह पर सवालिया निशान लगाए गए हैं । इतिहास - लेखन सतत प्रक्रिया है । ऐसे में संभावना है कि पुस्तक से भविष्य में इतिहास - लेखन के कुछ सूत्र मिल सकें ।
नवंबर , 2016 डॉ राजेन्द्रप्रसाद सिंह
गाँधीनगर , सासाराम
(प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध है - इतिहास का मुआयना।
सम्यक प्रकाशन, 32 / 3 ,पश्चिमपुरी, नई दिल्ली - 110063 दूरभाष: 9810249452, 9818390161)
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yeh book punjab main kahan se milegi
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