मध्यकालिन भारत में धार्मिक शिक्षा के कई स्कुल थे जिसमे गुरू से शिक्षा लेके कई लोग संत बने जैसे वैष्णवभक्ति स्कुल के रामानुज, उनके शिष्य रामानंद थे रामानंद से शिक्षा पाके कई लोग संत बने परंतु रविदास ऐसे कोई भी स्कुल के शिष्य नहीं थे क्यों की भक्ति काल में कीसि शुद्र को शिक्षा का अधिकार नहीं था ईस लीऐ वे स्वयं अपने गुरु थे बुद्ध की भांति दर्द की अनुभूति कर के ऐक संत धार्मिक गुरु और समाज सेवक बने, शिक्षा के सबंध में उनका ऐक दोहा है।
चल मन हरि चटशाल पढ़ाउ ।।गुरु की साटी ग्यान का अक्षर, बिसरै तो सहज समाधि लगाउँ।।
अर्थात हे मन ! चल, तुझे पाठशाला में पढ़ाउँगा जहॉं गुरु का सानिध्य और सम्यक बोध की प्राप्ति होगी। यदि इससे वंचित हुआ तो ध्यान-योग का सहारा लूंगा।
चूंकी सगुण भक्ति (परमात्माको ऐक आकार में देखना) के संत नहीं बन शके क्योंकी कोई शुद्र भला मंदिर और मूर्ति की पूजा करे ये पंडे कैसे सहन कर ले? और वैसे भी रविदासजी की रुचि निर्गुण भक्ति में थी।
खैर फीर भी रविदास निर्गुण भक्ति (यानि निराकार, निरंजन, अलख या फीर जिनके गुणो को परिभाषित नहीं कर शकते ऐसा) के संत बने और कंई बूराई, पाखंडो को आडे हाथ लीया और भेदभाव के खिलाफ व्यंगवाणी में पद लिखे। माद्य पूर्णिमा पर उनकी जन्म जयंत्ति पर उनको सत सत कोटी नमन।
- दिपक सोलंकी
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