June 14, 2017

Story Of Yayati's Daughter Madhavi : Blessing or a curse?

This is a story of ancient times that appears in Udyoga Parva (sections 119-122) of Mahabharata. It is a story that is uncoiled in four stages. Initially, Narada narrated it to Dhritarashtra, which Vyasa recorded; Vaishampayana narrates that to Janamejaya; and finally, Suti recites the entire epic. Narada’s narration comes about as an extension to his own story of fallowing to his conceit and arrogance. It is incidental, and not integrated into the Epic. It is not supported by any other narration in the Epic. The story raises many uncomfortable questions about the status and treatment of women in a society of a bygone era, which was guided by its own set of values. The fascinating but disturbing episode has been studied, in depth, by scholars, feminists and dramatists from sociological, psychological and various other angles.


Let’s, first, look at the story in its brief and summarised form.

Galav, a learned but penniless scholar, having completed his studies under the great teacher and sage Vishwamitra, had requested his guru to spell out the Guru Dakshina payable to him. After some prevarication, the sage finally said he wanted 800 rare Shyam Karna horses – white as the rays of the moon, each with one black ear. Overwhelmed by the demand, Galav had sought the help of his friend Suparna (Garuda) who suggested that since such a rare stable could only be maintained by a king, Galav should visit King Yayati of Pratishthan, who was renowned for his generosity and ask for help. The king told Galav that he owned no such rare horses, and as far as he knew, none of the major rulers had a stable of 800 horses of the kind required for the Guru Dakshina either. Instead, Yayati handed Galav his virgin daughter Madhavi. With her renewable virginity, the princess could be sold again and again to Kings looking for a son and heir from a virgin bride. And in return, Galav could ask as bride price whatever a number of Shyam Karna steeds the royal buyer could contribute. It could easily be part of the deal that once Madhavi had produced a male heir for her buyer, she would be set free and sold again for another batch of horses, till the magic number of 800 was reached.

Thus began a long chain of Madhavi’s marriages in exchange for white horses. First, she was sold to the great Ikshvaku king Haryax in exchange for 200 Shyam Karna horses. As promised, she obliged her buyer by producing a son and heir named Vasumanas. He went on to become the famous composer of the celebrated 10th Mandala of the Rigveda.

Madhavi’s next buyer was the famous King Divodas of Kashi, who owned 200 Shyam Karna horses. Madhavi, the renewed virgin, obliged him too by producing a son and heir. Named Pratardana, this one too later became a famous warrior.

Galav now heard that Ushinara, the ruler of Bhoj Nagari, had 200 Shyam Karna horses and desperately wanted an heir to his throne. He offered Madhavi to Ushinara. Once again, Madhavi bore a son. This heir was named Sivi, who won great acclaim later as a model upholder of justice and the fairness principle in jurisprudence.

Madhavi’s third marriage brought the total count of Shyam Karna horses with Galav to 600. But Vishwamitra had asked for 800, and Galav was still short of the required number. Once again, he sought out Suparna, who said that there were no more white horses available and that the only course left was for Galav to take what he had and request his guru to accept 600 horses along with Madhavi in lieu of the 200 missing horses, and set him free of his debt.

Vishwamitra agreed to this package and accepted Madhavi and the 600 horses as his full Guru Dakshina. This set Galav free of a great moral burden. In time, Madhavi bore Vishwamitra a son named Ashtak, whom Vishwamitra presented with his stable of 600 horses. He then set Madhavi free with a blessing that said all four of her sons would be famous and renounced the world. Ashtak – like his half-brothers Vasumanas, Pratardana and Sivi – achieved fame as a performer of several Ashwamedh Yagnas .

Yayati, the father of Madhavi, who had been witness to this sorry spectacle, now tried to arrange a Swayamvara for his ageing daughter, the virgin mother of four great sons, so that she had a chance, at last, to marry a man of her choice. But Madhavi spurned all offers of marriage, and disappeared to “live in the woods after the manner of deer.”

Can you imagine how our collective vision of famous ancient historical lineages will change after we acknowledge the tales about our caste and gender systems? In the Mahabharata, these tales reveal that most of the greatest writers, poets, sages, warriors and emperor founders of ancient dynasties in India were sons abandoned by their fathers or mothers (Bharat, Bhishma, Ved Vyas, Ayu, the great-grandfather of the founder of the Puru dynasty, are just a few) or born out of wedlock (Karna) or of women sold, abducted or simply given away as fertile sex slaves. So much for the patriarchal touchstones of legitimacy.

So whatever the moral of the story, at least we know now that feminism has a history and a rather long one at that.



Some Words In Hindi :-

मुनिकुमार गालव विश्वामित्र का शिष्य है। गालव 12 विद्याओं में पांरगत होने के उपरांत अपने गुरु से गुरु दक्षिणा लेने की हठ करता है। विश्वामित्र के बार-बार मना करने पर भी वह अपने हठ को नहीं छोड़ता। अंततः क्रोधित होकर विश्वामित्र उससे आठ सौ अश्वमेधी घोड़े माँग लेते हैं। इस बिंदु से गालव की एक अनवरत खोज श्याम कर्णी और श्वेत वर्णी आठ सौ अश्वमेधी घोड़ों के लिए आरंभ होती है। गालव बारह विद्याओं में पारंगत विश्वामित्र का शिष्य है जिसका तात्पर्य यही है कि वह बहुत बुद्धिमान है। गालव अपनी बुद्धिमानी का परिचय नाटक के आदि से लेकर अंत तक देता है।

गालव अत्यंत व्यवहारकुशल है वह जानता है कि कब, कहाँ और किससे काम निकाला जा सकता है। यही कारण है कि जब वह जान जाता है कि ययाति को आत्मप्रशंसा सुनने की आदत है तो वह उसकी और अधिक प्रशंसा करने लगता है- ''महाराज ययाति ने राज-पाट त्याग दिया है, मैं जानता हूँ, पर मैं यह भी जानता हूँ कि यशस्वी, दानवीर, ययाति ही मेरे अभ्यर्थन का कोई उपाय कर सकते हैं।'' वह ययाति की प्रशंसा के लगभग पुल बाँध देता है- ''लोग कहते थे, जैसे मरूस्थल में भटकने वाला व्यक्ति झरने की ओर भागता है, वैसे ही हताश व्यक्ति ययाति के द्वार की ओर उन्मुख होता है। ययाति ने आज तक किसी को खाली हाथ नहीं लौटाया। मैंने यही सुना था पर मुझसे भूल हुई, महाराज, मैं क्षमा चाहता हूँ। आज्ञा दीजिए।''

गालव का चरित्र एक हठी व्यक्ति का चरित्र है। अपने हठ के कारण ही वह विश्वामित्र के क्रोध का कारण बनता है। वह दर-दर आठ सौ अश्वमेधी घोड़े ढूँढता है और घोड़े न मिलने पर भी वह अपना हठ नहीं छोड़ता तथा आत्महत्या करने का प्रयास करता है। गरूड़ द्वारा राजा ययाति का नाम सुझाए जाने पर वह उनके आश्रम जाता है और उनसे आठ सौ अश्वमेधी घोड़े दान में माँगता है। राजा ययाति के बार-बार समझाने पर भी वह अश्वमेधी घोड़ों के लिए अपना हठ नहीं छोड़ता और विश्वामित्र के पास अपनी प्रार्थना लेकर जाना स्वीकार नहीं करता। यह गालव का हठ ही है जिसके कारण माधवी की तीन राजाओं के दरबार में बलि चढ़ती है।

गालव को यदि कर्त्तव्यनिष्ठ और वचन का पक्का चरित्र कहा जाए तो यह गलत होगा। सिक्के के दो रूपों की तरह गालव के चरित्र के भी दो पक्ष हैं। यह सही है कि वह अपनी गुरु भक्ति का पक्का है तथा गुरु को दिया हुआ वचन पूरा करना चाहता है परन्तु दूसरी ओर माधवी के प्रति वह किसी प्रकार के कर्त्तव्य का पालन नहीं करता। वह माधवी के जीवन का ग्रहण बन जाता है। माधवी को उसके कारण दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। माधवी के प्रति वह किसी प्रकार की कर्त्तव्यनिष्ठा का पालन नहीं करता। अंततः वह उसे स्वीकारने से भी मना कर देता है।

वास्तव में गालव की कर्त्तव्यनिष्ठा अपने गुरु के प्रति चाहे रही हो परन्तु सही मायनों में उसे कर्त्तव्यनिष्ठ प्राणी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कर्त्तव्यनिष्ठा का तात्पर्य किसी एक के प्रति नहीं वरन् सभी के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठत है। यूँ गुरु के प्रति गालव कर्त्तव्यनिष्ठ है। नाटक के आरंभ में ही वह कहता है- ''मेरे जीवन की कोई सार्थकता नहीं। मैंने अपने गुरु को वचन दिया था, उसे मैं पूरा नहीं कर पाया। मैं अपने गुरु महाराज के लिए गुरु-दक्षिणा नहीं जुटा पाया हूँ। मुझे जैसे पातकी के लिए मर जाना ही उचित है।''
गालव में आम व्यक्तियों की तरह सांसारिक भोग-विलास मे मोह और लालसा भी है। माधवी चक्रवर्ती पुत्र को जन्म देगी यह सुनकर वह अपने कर्त्तव्य से पथभ्रष्ट होने लगता है तथा उसके मन में लालसा का समावेश हो जाता है-''माधवी जिसे जन्म देगी वह चक्रवर्ती राजा बनेगा, ऐसा ही कहा महाराज ने! क्या माधवी के गर्भ से पैदा होने वाला गालव का पुत्र भी चक्रवर्ती राजा हो सकता है? चक्रवर्ती गालव! मेरे सामने संभावनाओं के कैसे प्रसार खुलने लगे हैं। माधवी को पाने का अर्थ है, चक्रवर्ती राजा तक बन जाने की संभावना।'' इस लालसा के चलते वह अपने गुरु पर भी संदेह करने लगता है- ''वह मुझे लज्जित करना चाहते हैं। नहीं तो आठ सौ घोड़े कौन माँगता है? पहले कभी भी उन्होंने अपने किसी शिष्य से ऐसी गुरु दक्षिणा नहीं माँगी। फिर मुझ पर ही ऐसी कृपा क्यों?''

गालव अपनी गुरु दक्षिणा स्वयं जुटाने में असमर्थ रहता है तथा माधवी को साधन के रूप मे इस्तेमाल करता है। वह माधवी के माध्यम से ही अपने गुरु ऋण से उऋण हो पाता है। यदि ययाति माधवी को गालव को दान में न देता तो गालव कभी भी गुरु दक्षिणा के रूप में आठ सौ अश्वमेधी घोड़े नहीं जुटा पाता। गालव केवल अपने विषय में सोचने वाला पात्र है। उसे केवल अपने आत्मसम्मान, अपने वचन-पालन की चिंता है। माधवी के प्रति कोमल भाव रखने के बावजूद भी वह उसे दान में मिली हुई वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं समझता यही कारण है कि वह उसके प्रति उपयोगितावादी दृष्टिकोण रखता है। राजा हर्यश्च के दरबार में जब माधवी उससे कहती है- ''यह क्या हो रहा है, गालव? तुम मुझे कहाँ ले आये हो? मेरे साथ किस जन्म का वैर चुकाने आये हो?'' आदि प्रश्न करती है तब भी गालव मौन बना रहता है। ऐसा नहीं है कि गालव स्थिति की विकटता या माधवी के भविष्य को नहीं समझ पाता वह कहता भी है- ''माधवी तुम क्या कह रही हो? इसमें तो बरसो लग जायेंगे। इस तरह मैं कब ऋण मुक्त हो पाऊँगा और तुम्हें न जाने किस-किस राजा के रनिवास में रहना पड़े।''

इसके बावजूद भी वह 200 अश्वमेधी घोड़ों के बदले में माधवी का सौदा कर लेता है।

गालव माधवी की अपने पुत्र के प्रति ममता को समझने में भी असमर्थ रहता है। इसका प्रमुख कारण उसका आत्मकेन्द्रित व्यक्तित्व है। वह माधवी के बालक को एक अनुबंध की संतान के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानता ''उसे तुम अपना बच्चा समझती हो, माधवी तुमने तो राजा को एक राजकुमार जुटाया हैं, बस यही हमारा अनुबंध था।'' माधवी जब गालव को सोते हुए छोड़ जाती है तब वास्तविक स्थिति का पता किए बिना ही वह उस पर दोषारोपण करने लगता है- ''अब माधवी गयी तो कहाँ गयी? क्या मालूम उसने सोचा हो कि इस यातना का तो कोई अंत नहीं है। मैं और सहन नहीं कर सकती। आखिर थी तो वह नारी ही। नारी भगवान की ऐसी सृष्टि है कि जो अपनी कोमलता के कारण, सदा किसी न किसी का सहारा लिए रहती है।''

गालव जिसके सहारे अपने ऋण से उऋण होने के लिए प्रयासरत था उसे ही दुर्बल मान लेने की भूल करता है- ''पत्तों की नाव के सहारे मैंने सागर पार करने की चेष्ट की।'' नाटक के अंत में गालव माधवी से विवाह न कर इस बात का परिचय दे देता है कि वह एक अत्यंत स्वार्थी और लालसायुक्त प्राणी था। उसे जब तक माधवी की आवश्यकता थी तब तक उसने उसे अपनी ढाल बनाया। परन्तु जैसे ही वह गुरु दक्षिणा के भार से मुक्त हुआ उसे माधवी का होना न होना बराबर लगने लगा।कहा जा सकता है कि गालव एक आम व्यक्ति की दुर्बलताओं से ग्रसित चरित्र है। उसमें यदि कहीं कर्त्तव्यनिष्ठता या वचनबद्धता का गुण दृष्टिगत होता भी है तो केवल आत्मसम्मान और हठ के कारण अन्यथा वह दुर्बलताओं से ग्रस्त अवसरवादी चरित्र है।


Full Story is described in Mahabharata, Udyog Parv, Sections 106-123