'जल्दी चलो...गांव की इज्जत खतरे में है.
हिम्मत देखो उस कमीने की.. छोटी जाति का होकर बैंड-बाजा बजाएगा!
बैंड बजाकर चार पैसे कमाता था लेकिन नहीं... देखो इसे तो चर्बी चढ़ गई.
बकुल काका 25 सालों से ‘छबीली बैंड पार्टी’ में बैंड बजाकर अपने परिवार का पेट पाला करते थे. शादियों के मौसम में घर में बहार रहती और शादियों का मौसम जाते ही घर में दाने-दाने को तिजोरी में बंद करके रखने-सी नौबत आ जाती थी.
परिवार के नाम पर उनकी 18 साल की बेटी और बीमार पत्नी थी. बकुल काका की बेटी बचपन से अपने पिता को लाल रंग का बदरंग होता कुर्ता पहनकर बैंड बजाते हुए देखा करती थी. कभी-कभी बकुल काका उसे अपने साथ ले जाते थे. उसे बचपन से दुल्हन को देखने का बहुत शौक था. वक्त बीता और एक रोज वो घड़ी आ ही गई, जब बकुल काका की बेटी की शादी तय हो गई. शादी के एक दिन पहले बेटी अपने पिता से पूछ बैठी ‘बाबा आप मेरी शादी में भी बैंड बजाएंगे?’
बकुल काका बेटी के सवाल पर मुस्कुरा दिए और अपने बदरंग लाल कुर्ते पर हाथ फेरने लगे. उस रात बेटी तो सो गई लेकिन बकुल काका की आंखों में नींद नहीं थी.
'भला मैं छोटी जात का आदमी अपने घर के उत्सव में बैंड कैसे बजा सकता हूं? लोग, समाज और गांव वाले क्या कहेंगे? जीना हराम हो जाएगा मेरा! मैं रोजी-रोटी कमाने के लिए बड़े लोगों के घर बैंड बजाता हूं...लेकिन अपने यहां!'
रात इसी उधेड़बुन में कट गई. फिर मन में एक ख्याल कौंधा. ‘आज तक बेटी को दिया ही क्या है? बैंड-बाजा बजाना ही मेरी कला है और यही मेरी रोजी-रोटी. मैं अपनी कला बेटी के नाम करता हूं यही उसे मेरा तोहफा है.’
उस रात बकुल काका ने अपनी दुल्हन बेटी को नजर भर के देखा. उनकी आंखों से आसूं झलक रहे थे. तभी एक चमत्कार हुआ. जाति के भेद को भेदते हुए बैंड ने समां बांध दिया. बेटी मग्न होकर झूम उठी. काका की बीमार पत्नी बिस्तर पर बैठी-बैठी ही तालियों की थाप दे रही थी.
इतने में गांव के मुट्ठी भर लोग मंडप में आ धमके और बकुल काका की हिम्मत को बुरी तरह रौंद डाला. खाने-पीने का सारा सामान आग के हवाले करते हुए बारातियों से खूब हाथापाई हुई. चारों तरफ गालियों, उपहास और लानतों की विषैली बौछार हो रही थी. बकुल काका इतना सब होने पर भी अपनी बात पर अड़े रहे और बैंड बजाने के लिए माफी मांगने को तैयार नहीं थे. अचानक चौधरी के बेटे का खून उबल पड़ा और उसने बकुल काका के सीने पर बंदूक तान दी. बकुल काका सीना तानकर खड़े रहे.
काका की आंखों में डर को ना देखकर चौधरी का बेटा बौखला गया. उसने दांत पीसते हुए बकुल काका पर गोली चला दी, अगले ही पल जमीन पर धम्म से किसी के गिरने की आवाज हुई. बकुल काका सही-सलामत खड़े थे लेकिन उनकी बीमार पत्नी ने उनकी बला अपने सिर ले ली थी. इतने सालों से जो औरत बिस्तर से सही से खड़ी भी नहीं हो पाती थी, वो अपने पति को मुश्किल में देखकर चीते की फुर्ती से उठ खड़ी हुई थी, लेकिन बस चंद पलों के लिए.
शादी का माहौल कुछ ही घंटों में सदमे-शोक में बदल चुका था. दबंग लोग अपनी चौड़ी छाती और तनी हुई मूंछे लेकर वापस जा चुके थे.
बकुल काका और उनकी बेटी पूरी रात यूं ही बैठे रहे.
अगली सुबह गांव भर में एक बार फिर से बकुल काका की झोपड़ी से बाजे और डफली की आवाज आ रही थी. चौधरी और गांव के दूसरे दबंग लाठी, बंदूक, भाले लेकर बकुल काका की झोपड़ी की तरफ दौड़ पड़े.
पूरा गांव बकुल काका के घर के सामने उमड़ पड़ा. वहां का नजारा देखकर सब सन्न थे.
काका बैंड को अपनी पूरी जान लगाकर बजा रहे थे. उनकी आंखों से आसूं झरझर बह रहे थे. उनकी बेटी मेंहदी लगे हाथों से डफली पर थाप दे रही थी. सामने सफेद कपड़े में लिपटी पत्नी की लाश पड़ी थी.
मातम ने एक ऐसे उत्सव का रूप ले लिया था, जहां शहीद पत्नी को एक पति अंतिम विदाई दे रहा था. बाजे, डफली इंसान बनकर समाज पर हंस रहे थे और वहां खड़े मूंछों वाले लोग अपाहिज हो चुके थे, दिमागी अपाहिज.
(ये कहानी मध्यप्रदेश के माणा गांव में हुई एक सच्ची घटना से प्रेरित है)
साभार- प्रतिमा जायसवाल
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