देश आझाद हूआ तब गुजरात के दुदखा गांव के दलित जाति के वणकर कुबेर दला और फकीर डोसा के पास करीब 9 हैक्टर जमीन थी. उस वक्त गुजरात बोम्बे स्टेट का हिस्सा था. 1955 में कांग्रेस सरकार ने परचुरण इनामी नाबूदी अधिनियम, 1955 के तहत इन दलितों की जमीन सरकार के क़ब्जे में ले ली. याद रहे, इसी कांग्रेस सरकार ने एक साल बाद 1956 में लेन्ड टेनन्सी कानून के तहत सौराष्ट्र के 55,000 पटेल किसानों को दो लाख एकड जमीन का स्वामित्व दे दिया था.
1955 से लेकर 1995 तक. चालीस साल गुजरात में कांग्रेस की लीबरल, डेमोक्रेटिक, सेक्युलर, प्रगतिशील, दलित-मित्र सरकार थी. किसीने इन गरीब दलितों को इनकी जमीन वापस देने का कोई प्रयास नहीं किया. उस वक्त झीनाभाई दरजी थे, बडे दलित-मित्र. बीस मुद्दा अमलीकरण समिति के अध्यक्ष. उन्हों ने भी कुछ नहीं किया. वणकर कुबेर दला सरकारी कचहरियों के चक्कर काटते काटते मर गए. उनकी बेटी हेमाबेन अब इस जमीन के लिए लडने लगी. 1995 के बाद गुजरात में भाजप की सरकार आई. हिन्दु हीत की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा, नारा देनेवाली सरकार. उसने भी कुछ नहीं किया. बेचारी हेमाबेन भी सरकारी कचहरियों के चक्कर काटते काटते बूढ्ढी हो गई.
एक दिन एक सेवा-निवृत्त सरकारी कर्मी भानुभाई उनके पास गए. उन्हों ने उनका केस हाथ में लिया. वे भी अब सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने लगे. एक दिन भानुभाई के शब्र का पियाला भर गया. उन्हों ने अपने करीबी दोस्तों को बोल दिया, मैं अब आत्मविलोपन करुंगा. सरकार हमारा सूनती नहीं है. अब मैं मेरी जान दे दुंगा. अपने वचन के पक्के भानुभाई ने पाटन कलेक्टर कचहरी के सामने ही अपने शरीर पर ज्वलनशील पदार्थ छीडककर जलकर अपने प्राणों की आहूती दे दी. पूरे देश में भूचाल आ गया. लोग सडकों पर आ गए. कई दिनों तक उनका मृतदेह लेकर उनकी पत्नी गांधीनगर में बैठी रही. तब सरकार ने इस जमीन, जो 1955 से दलितों से छीनी गई थी, वापस देने का फैंसला किया.
यह पूरी कहानी मैं आज फिर इस लिए दोहरा रहा हूं कि भानुभाई की मौत के लिए कांग्रेस औऱ भाजप दोनों जिम्मेदार है. दोनों पक्ष दलितों के जजबातों से खिलवाड करते हैं. दोनों के लिए दलितों के मुद्दे फुटबोल जैसे है, जब चाहो उछालो. सत्ता पर आने के बाद भूल जाओ. हमें यह याद रखना पडेगा, वर्ना भानुभाई जैसे लोग शहीद होते रहेंगे और हम वहीं के वहीं रहेंगे.
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