February 28, 2018

मार्क्सवाद या छुपा ब्राह्मणवाद ???

By Jigar Shyamlan ||  28 February 2018 


‘मार्क्सवाद की दुर्दशा' में सुप्रसिद्ध इतिहासकार एस. के. बिस्वास लिखते है...

मित्रों उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में आपके समक्ष निम्न शंकाएं रखना चाहता हूं.

- हालांकि पहले भी इस किस्म की शंका रख चुका हूं फिर भी दुबारा बता दूं कि क्रांति के शास्त्र में जिस ब्राह्मण वर्ग का चरित्र प्रतिक्रांति वाला है , उसके हाथ में मार्क्सवाद जैसे क्रांतिकारी सिद्धांत का लगाम देखकर वंचित वर्ग क्यों नहीं मार्क्सवाद से दूरी बनाएगा?

- फुले से लगाये शाहूजी, पेरियार, बाबासाहेब ,रामस्वरूप वर्मा ,जगदेव प्रसाद कांशीराम इत्यादि सभी बहुजन नायकों ने मार्क्सवादी- ब्राह्मणों के खिलाफ आक्रामक तेंवर अपनाये। वही काम उनके अनुसरणकारी भी किये जा रहे हैं। आप यह बतलायें बहुजन नायकों का विरोध क्या अकारण था?

- यह तय है कि एक वर्ग के रूप ब्राह्मणों ने अपनी मंषा से मानवता को जितनी क्षति पहुचाया है, उसकी कोई मिसाल मानव जाति के इतिहास में नहीं है। इनके कारण देश की बहुसंख्यक आबादी शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतक, धार्मिक- के साथ ही पिछड़े,अस्पृश्य,आदिवासी(जंगली)और विधर्मी बनकर पूर्ण मानवीय मर्यादा से भी वंचित हैं। अतः जिस जाति का किसी क्रन्तिकारी संगठन पर वर्चस्व,जगदेव प्रसाद की भाषा में कुत्ते द्वारा मांस की रखवाली करने जैसा हो;जो डॉ.आंबेडकर तथा अन्य बहुजन नायकों के शब्दों में शूद्रातिशूद्रों(सर्वस्व-हारा)के सबसे पुराने व कट्टर दुश्मन हों,उसी वर्ग के कथित डीक्लास्ड और ज्ञानी लोगों के नेतृत्व में दलित-पिछडों के मार्क्सवाद के झंडे तले संगठित होने की कोई युक्ति है?

- जिस डॉ.अम्बेडकर के दलित –मुक्ति अवदानों को देखते हुए दुनिया ने अब्राहम लिंकन,बुकर टी वाशिंगटन,मोजेज इत्यादि से उनकी तुलना किया उसी डॉ.आंबेडकर को 21 वीं सदी के मार्क्सवादियों द्वारा खारिज करना क्या यह साबित नहीं करता कि वर्तमान प्रजन्म के वैदिकों की सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है और वे ब्राह्मणवादी कहलाने के ही पात्र हैं। क्या इसके पीछे उनकी यह मानसिकता नहीं झलकती कि जन्मजात सर्वस्वहारा आंबेडकरवाद से मुक्त होकर राष्ट्रवादी,गाँधीवादी या खुद उनके अर्थात मार्क्सवादी खेमे में चले जाएँ ताकि मूलनिवासियों के मुक्ति की परिकल्पना ध्वस्त हो जाय और उनपर परम्परागत शासक जातियों का प्रभुत्व बरकरार रहे?

- महान मार्क्सवादी विचारक महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ ‘कार्ल मार्क्स’के विषय प्रवेश में लिखा हैं-‘मानव समाज की आर्थिक विषमताएं ही वह मर्ज है,जिसके कारण मानव समाज में दूसरी विषमताएं और असह्य वेदनाएं देखी जाती हैं.इन वेदनाओं का हर देश-काल में मानवता –प्रेमियों और महान विचारकों ने दुःख के साथ अनुभव किया और उसको हटाने का यथासंभव प्रयत्न भी किया.भारत में बुद्ध,चीन में मो-ती,इरान में मज्दक ….जैसे अनेक विचारक प्रायः ढाई हज़ार साल तक उस समाज का सपना देखते रहे ,जिसमें मानव-मानव समान होंगे;उनमें कोई आर्थिक विषमता नहीं होगी;लूट-खसोट,शोषण-उत्पीडन से मुक्त मानव समाज उस वर्ग का रूप धारण करेगा,जिसका भिन्न -भिन्न धर्म मरने के बाद देते है। ’महापंडित राहुल ने 2500 सालों के इतिहास में आर्थिक बिषमतारहित व शोषण व उत्पीडन-मुक्त समतामूलक समाज के लिए सक्रिय प्रयास करनेवाले चंद लोगों में उस गौतम बुद्ध का नाम बड़ी प्रमुखता से लिया था जिनके धम्म का अनुसरण डॉ.आंबेडकर ने किया था। मानवता की मुक्ति के लिए मार्क्स द्वारा वैज्ञानिक सूत्र इजाद किये जाने के कई सदियों पूर्व विश्व में एकमात्र वैज्ञानिक धर्म का प्रवर्तन करनेवाले गौतम बुद्ध ने बेबाकी से कहा था। ’किसी बात को इसलिए मत मानो कि उसका बहुत से लोग अनुसरण कर रहे हैं या धर्म-शास्त्रों में लिखा हुआ है अथवा मैं(स्वयं बुद्ध) कह रहा हूँ। आज आंबेडकर के लोग बड़ी तेज़ी से उसी बुद्ध के धम्म की शरण में जा रहे हैं जिस बुद्ध ने इस दुनिया को को स्वर्ग से भी सुन्दर बनाने का वैज्ञानिक उपाय सुझाया था। आज आंबेडकर के साथ जिस तरह मार्क्सवादी बुद्ध को भी खारिज करने का उपक्रम चला रहे हैं उससे लगता है वे आंबेडकर के लोगों को उन धर्मों की पनाह में ले जाना चाहते जो मरणोपरांत स्वर्ग का सुख मुहैया कराते हैं। ऐसे में अगर मैं यह कहूं कि मार्क्सवादी छुपे ब्राह्मणवादी हैं तो क्या यह गलत होगा?

- डॉ.आंबेडकर ने जिस तरह हिंदुत्व के दर्शन को मानवता विरोधी करार देने के साथ ही ‘हिदू-धर्म की पहेलियां’लिख कर किसी धर्म की धज्जी उड़ाई वह धर्म-द्रोह के इतिहास की बेनजीर घटना है। किन्तु पेरियार ने जिस तरह सार्वजनिक रूप से हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को झाड़ू और जूते से पिटने का अभ्यास बनाया उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन्ही के पद चिन्हों पर चलते हुए कांशीराम ने शोषण के यंत्र हिंदू धर्म-शास्त्र और देवी-देवताओं के खिलाफ ऐसा अभियान चलाया कि लोग घरों से देवी-देवताओं की तस्वीरें निकाल कर नदी तालाबों में डुबोने लगे। किन्तु जिस तरह अम्बेडकरवाद से प्रेरित होकर लोग धर्म से विमुक्त होना शुरू किये, वह काम भारत में मार्क्सवाद न कर सका। आज अम्बेडकरवाद से प्रेरित होकर जिस तरह दलित साहित्यकारों ने लोगों को दैविक गुलामी (divine-slavery)से मुक्त करने के लिए कलम को तलवार के रूप में इस्तेमाल करने की मुहीम छेड़ा है उसके सामने भारत के गैर-आंबेडकरवादी साहित्यकार शिशु लगते हैं। इस मोर्चे पर अम्बेकर्वादियों का मुकाबला कर सकते थे मार्क्सवादी। पर,मार्क्सवादी तो शिशु ही दीखते हैं। इसका खास कारण यह है कि भारत के मार्क्सवादियों ने सिर्फ स्लोगन दिया –धर्म अफीम हैं। किन्तु लोगों को दैविक-दासत्व से मुक्त करने का आंबेडकरवादियों जैसा प्रयास बिलकुल ही नहीं किया। इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे मार्क्सवादियों के गढ़ बंगाल की याद आ रही है.


बंगाल की राजधानी कोलकाता में प्रवेश करने के दौरान जब भी ट्रेनें दक्षिणेश्वर के सामने से गुजरती हैं, प्रायः सभी बंगाली यात्रियों का सर माँ काली की श्रद्धा में झुक जाता है। पारलौकिक शक्ति में परम विश्वास के कारण बंगाली,जिनकी दूसरी पहचान मार्क्सवादी के रूप में है,जिस मात्रा में अंगुलियों में रत्न धारण करते हैं,वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन सब त्रासदियों के लिए कोई जिम्मेवार है तो मार्क्सवादी। उन्होंने धर्म अफीम है का डायलाग मारने के सिवाय कुछ किया ही नहीं। ऐसे में दैविक-दासत्व से मुक्ति के मोर्चे पर मार्क्सवादियों की शोचनीय दशा देखते हुए क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वे बेसिकली ब्राह्मणवादी हैं?

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