February 24, 2018

लाल सलामकी बाते हमे रोमांचित अवश्य करती है पर यह बहुजन आंदोलन को सफल नहीं बनाती।

By Jigar Shyamlan ||  2 February 2018




आजकल भारत का पूंजीवादी मीडिया जिस तरह से दलित आंदोलन का कवरेज कर रहा है यह देखकर तो ऐसा ही लगता है जैसे भूतकाल में कोई दलित आंदोलन हूआ ही नही।

वैसे तो मुझे दलित शब्द पसंद नही, यह शब्द गैर संवीधानीक है। ईसलिये जहां तक हो सकता है यह शब्द ईस्तमाल नही करता। परंतु यह बात समझाने के लिये यह शब्द प्रयोग अति आवश्यक है ईसलिये प्रयोग किया गया है।

यह बात खुली किताब सी है कि दलित आंदोलन काफी सालो से चल है, और ईस आंदोलन से काफी सारे लोग भी जूडे हूए है। यह आंदोलन भिन्न भिन्न नामो से जरूर है पर एक सबका उद्दैश्य एक ही है।

दलित आंदोलन में बाबा साहब आंबेडकर के बाद अगर कोई स्मरणीय कहा जा सके वैसा नाम है तो वोह कांशीराम का रखा जा सकता है।

अब महत्वपूणँ बात काशीराम काफी सालो से ईस दीशा में काम कर रहे थे। लेकिन फिर भी उस वक्त समाचारो में कहीं भी उनका कोई नामोनिशान नही था।

मान लीया जाये उस वक्त टी.वी.चैनल्स की शुरूआत थी, सिफँ अखबार थे लेकिन फिर भी अखबारो ने काशीराम को ईतना कवरेज नही दीया था।

बडी हैरानी की बात यह है कि जब बहूजन समाज पाटीँने सरकार बनाई तब काशीराम को समाचारो मे जगह मिली थी। उसके बाद काशीराम के फोटो, ईन्टँरव्यु, प्रेस वाताँलाप मीडिया मे देखने को मिले। बहोत से लोग ऐसै थे जिन्होने काशीराम की फोटो पहली बार देखी थी। कुछ लोग तो पहचानते भी नही थे।

लेकिन आज भारत पूंजीवादी मीडिया दलित आंदोलन के हीरो को जिस तरह से कवरेज दे रहा है, लगता है दाल में कुछ काला हो न हो परंतु लाल जरूर है।

गुजरात के ऊनाकांड से उभरे लाल सलाम नेता को आज दलितो के महानेता बनाने की जो मुहीम चल रही है यह बात सोचने को मजबूर कर देती है।

क्या किसी बहुजन या मूलनिवासी जो समाज एवं आंदोलन का सच्चा हितैषी हो उसको भारत का मुख्यधारा का पूंजीवादी मीडिया इतना कवरेज देता है..??

मैने कभी वामन मेश्राम, मायावती और विजय मानकर जैसे लोगो का कभी भी कहीं भी ईतना ज्यादा मीडिया कवरेज भारत के पूंजीवादी मिडीया में नही देखा।

यह लाल सपुत ने आख़िर कौन सा क्रांतिकारी आंदोलन किया जो हर चैनल वाले उसका अकेले-अकेले इंटरव्यू कर रहे है। सिफँ एक चूनाव ही तो जीता है वह भी कान्ग्रेस के पूणँ सपोटँ के साथ। मान लिजीये यदी कान्ग्रेस ने उम्मीदवार खडा किया होता तो क्या होता..?? यह जीत जिस पर इतना दम लगाया जा रहा है। वोह असल में खुद की नही पर किसीकी उधार दी हूई है।

लाल सपूत लाल सलाम बोलते है। अपने आप को क्रान्तिकारी और दलित हितेषी बता रहे है, पर बाबा साहब की बातो को नही मानते। लाल सपुत कहते है कि बाबा साहब की बाते पथ्थर की लकिर नही। यह लाल सपुत बोल रहे है, सारे बहूजन फैक है।

कहीं यह मुख्यधारा के मीडिया और राजनीतिक संगठनों की, स्थापित बहुजन आंदोलन एवं नेतृत्व के प्रति बहुजन जनता में अविश्वास पैदा करने की, मीडिया के माध्यम से बहुजनों में भ्रम फैलाने की साज़िश तो नहीं..??

विचारधारा ही एक तत्व है जिससे आंदोलन चलाया जा सकता है, जो टिकाऊ और बहूजनो के हित में होगा।

लाल सलामकी बाते हमे रोमांचित अवश्य करती है पर यह बहुजन आंदोलन को सफल नहीं बनाती।

जय भीम बोलीए
लाल सलाम छोडीए




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