By Sanjay Patel Bauddha
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डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने अपनी पुस्तक "जाति-प्रथा का विध्वंस" में लिखा है कि धर्म और कानून दो अलग-अलग चीज होते हैं।
प्रत्येक धर्म के कुछ सिद्धांत होते हैं। ये सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू होते हैं। धर्म में किसी खास व्यक्ति या समूह के लिए कुछ पाबंदी हो या दूसरे समूह के लिए कुछ छूट हो ऐसा नहीं होता।
कानून या नियम मनुष्य के जीवन को नियंत्रित करने के लिए बनाए जाते हैं। जैसे किसी देश का संविधान या स्कूलों के नियम। स्कूलों में कुछ खास नियम होते हैं- समय पर आने का, पढ़ने का, छुट्टी का, अध्यापकों के साथ व्यवहार करने का आदि।
कानून या नियमों को बदला जा सकता है। जैसे जनहित में संविधान में संशोधन किया जा सकता है। जिसका कोई बुरा नहीं मानता।
लेकिन धर्मों के सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं करता है और ना ही करना चाहता है क्योंकि वह सोचता है कि धर्म के सिद्धांत ईश्वर के बनाए हुए हैं, या ईश्वर के दूत के बनाए हुए हैं।
हिंदू धर्म में वास्तव में सिद्धांत नहीं है, वे कानून ही है जैसे कि ब्राम्हण को किस तरह व्यवहार करना चाहिए, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों को किस तरह से व्यवहार करना चाहिए। उनके अलग-अलग अधिकार बताये गए हैं। लेकिन इन कानूनों को धर्म का रूप दिया हुआ है जिससे लोग उसको सुधारने की हिम्मत ना करें।
दूसरी बात है कि हिंदू धर्म में ब्राम्हण को सम्मानित माना जाता है और भू-देवता माना जाता है। जैसा वह चाहता है वैसा ही किया जाता है। वह कभी नहीं चाहेगा कि हिंदू धर्म में सुधार हो क्योंकि उसमें उसका बहुत फायदा है। मंदिरों में बिना मेहनत के गाढ़ी कमाई होती है। लोगों की जन्म, मृत्यु, शादी में मुफ्त में खाने को मिलता है। ब्राह्मण ऐसा अधिकार क्यों छोड़ना चाहेगा?
इन कारणों के होते हुए हिंदू धर्म में सुधार संभव नहीं है। यदि जनता को समझ में आ जाए कि हिंदू धर्म की असमानतावादी व्यवस्था धर्म का सिद्धांत नहीं बल्कि शोषण का कानून है तो वे उस को बदलने में कोई संकोच नहीं करेंगे।
वह केवल श्रद्धा के नाम पर रुका हुआ है और अपना शोषण करवाता रहता है। ज्ञान प्राप्त होते ही वह बिना किसी की डरे इस सड़े-गले कानून को मानने से मना कर देगा और वर्ण व्यवस्था से मुक्त हो जाएगा।
इस प्रकार से मनुष्य का डर केवल अज्ञान के कारण है।
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