By Sanjay Patel Bauddha
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादभावयो: ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति: ।
अर्थ: जो कोई हम दोनों के संवाद रूप इस 'धर्म' को पढ़ेगा तो मेरा मत है कि उसके ऐसा करने से मैं ज्ञान यज्ञ द्वारा पूजित होऊंगा ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: || (गीता, अध्याय 03/35)
अर्थ: अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है । अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है ।।
गीताकार इतना डरा हुआ प्रतीत हो रहा है कि गीता के इस श्लोक को उलट फेर करके गीता अध्याय 18 के श्लोक 47 में उसी बात को फिर दोहरा बैठता है-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || 47||
अर्थ: अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है ;क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ ।।
सूचना: जिस किसीकी आस्था-श्रद्धा कमजोर हो वह न पढ़े और अगर फिर भी पढ़ते है और उनकी कमजोर आस्था-श्रद्धा को ठेस पहुंचे तो इसके जिम्मेवार वह खुद रहेंगे ।
भारत के कुछ कुर्सी तोड़ विद्वान भोलेभाले लोगों को यह कहकर गुमराह किया करते है कि आज से लगभग 5-6 हजार वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ था, जिसमें गीता समाहित है... मगर आज यहा कई किताबों के रेफरेंस और अध्ययन से इस बात का खंडन करेंगे...
कहते है कि अपराधी अपने पीछे अपराधपन का कोई न कोई प्रमाण अवश्य ही छोड़ जाता है ! ऐसी ही कुछ प्रामाणिक बातें गीताकार ने भी छोड़ी है । गीता का लेखक अपने घर में बैठकर गीता लिख रहा है। वह गीता के 18वें अध्याय के श्लोक 70 में कृष्ण के मुंह से कहला बैठता है -
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादभावयो: ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति: ।
अर्थ: जो कोई हम दोनों के संवाद रूप इस 'धर्म' को पढ़ेगा तो मेरा मत है कि उसके ऐसा करने से मैं ज्ञान यज्ञ द्वारा पूजित होऊंगा ।
गीताकार ने जो 'अध्येष्यते' शब्द का प्रयोग किया है; यहीं पर वह पकड़ा गया है। सभी जानते है कि युद्ध के समय कृष्ण और अर्जुन में मौखिक वार्तालाप हो रहा था और मौखिक वार्तालाप में 'अध्येष्यते' का प्रयोग सरासर गलत है। गीताकार स्वयं भूल गया था कि कृष्ण और अर्जुन का मौखिक वार्तालाप है। इसीलिए भूलवश वह 'अध्येष्यते' (पढ़ेगा) का प्रयोग कर बैठा। 'पढ़ेगा' का अर्थ है कि गीताकार घर में जो पोथी लिख रहा है, उसे भविष्य में कोई पढ़ेगा (=अध्येष्यते) अतः गीता का संबंध वास्तव में किसी युद्ध से न होकर वह तो केवल गीताकार की घर में बैठे ही बैठे कोरी कल्पना ही है ।
कहते है कि कृष्ण ने समय को भी रोक दिया था, अर्जुन और कृष्ण के अलावा सब रुक गया था तो फिर गीता लिखी किसने ? न अर्जुन ने न कृष्ण ने तो यह तीसरा कहा से आया ?
गीता की रचना कब की गई है, इसका प्रमाण स्वयं गीता में ही मिल जाता है! प्रसिद्ध इतिहासकार धर्मानंद कोसंबी ने खोज करके बताया है कि बालादित्य राजा के राज्यकाल (5वीं शताब्दी) में वादरायण या उसके किसी अज्ञात नामा शिष्य ने इसकी रचना की होगी ।
"गीता की भाषा 500 ईशवी पूर्व वाली नही है । यह भाषा बहुत कुछ आधुनिक संस्कृत जैसी है । यह कालिदास के काफी निकट है । फिर इसमें बौद्ध दर्शन के 'निर्वाण' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । इससे स्पष्ट है कि यह बुद्ध के बाद कि रचना है।
गीता का समय निश्चित करने में स्वयं गीता काफी मदद करती है। अध्याय 13 के श्लोक 4 में 'ब्रह्मसूत्र' पदों का उल्लेख है। ब्रह्मसूत्रों में बुद्ध दर्शन के चारों संप्रदायों वैभाषिक, सौत्रान्त्रिक, योगाचार और माध्यमिक का खंडन है। योगाचार का विकास असंग और वसुबंधु नाम के भाइयों ने सन 350 ईशवी के आसपास किया । इसके 40-50 वर्ष बाद ही योगाचार इतना प्रसिद्ध हुआ कि इसके पृथक खंडन की जरूरत पड़ी। स्पष्ट है, सन 400 ईसवी के बाद ही ब्रह्मसूत्रों की रचना हुई। लगभग इसी समय वादरायण हुआ जिसका शंकर की गुरु परंपरा में आदि स्थान है- वादरायण, उसका शिष्य गोविंद भागवदपद और उसका शिष्य आदि शंकराचार्य (जन्म 788 ईसवी) शंकर के जन्म से दो-ढाइसो वर्ष पहले कहीं हुआ होगा।
गीता की रचना बौद्ध धर्म के विकास के बाद ही हुई है। बौद्ध धर्म से मुकाबला करने के उद्देश्य से ही किसी अल्प विद्वान ने इसकी रचना घर मे बैठकर की है। पांचवी शताब्दी के आसपास बौद्ध धम्म उच्च शिखर पर था। उस समय के वर्णाश्रम धर्म के मुकाबले में बौद्ध धम्म श्रेष्ठ माना जाता था। जो गंदगी, दलदल, अनैतिकता तथा अंधविश्वास वैदिक धर्म में थे, बौद्ध धम्म इन सबसे मुक्त था। इसीलिए लोग पुराने दलदल को छोड़कर बौद्ध धम्म अंगीकार कर रहे थे। इस धर्म परिवर्तन को रोकना गीताकार का मूल उद्देश्य था। गीताकार यह भी जानता है कि वैदिकधर्म गुण रहित है और बौद्ध धम्म गुण श्रेष्ठ है। इसीलिए बौद्ध धम्म से वह भयभीत है। तभी तो गीताकार को कहना पड़ता है -
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: || (गीता, अध्याय 03/35)
अर्थ: अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है । अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है ।।
गीताकार इतना डरा हुआ प्रतीत हो रहा है कि गीता के इस श्लोक को उलट फेर करके गीता अध्याय 18 के श्लोक 47 में उसी बात को फिर दोहरा बैठता है-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || 47||
अर्थ: अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है ;क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ ।।
इन दोनों श्लोकों पर सोचा जाए तो पता चलता है कि, अगर मान लिया जाए कि सृष्टि का सबसे पुराना धर्म हिन्दू है तो फिर कृष्ण यह श्लोकों में कौन से दूसरे धर्म की बात करता है? अगर हिन्दू धर्म अच्छा है तो अर्जुन को यह समझाने की क्या आन पड़ी ?
डॉ. श्रीराम आर्य ने गीता विवेचन में लिखा है कि, " गीता की रचना... यह प्रकट करती है कि वह अन्य शास्त्रों में से चोरी करके बनाई गई पुस्तक है। गीताकार ने जो भी सामग्री महाभारत, मनुस्मृति व उपनिषदों और बौद्ध साहित्य में से ली है, उसे तोड़-मरोड़कर व उसमे मिलावट करके उपस्थित किया है...
गीता में 'निर्वाण' शब्द बौद्ध धर्म से लिया गया है क्योंकि वेदों, ब्राह्मण ग्रंथो तथा उपनिषदों में यह 'निर्वाण' शब्द कहीं नही है।
(अगले पोस्ट में गीता में कहा कहा से चोरी करके लिखा गया है उसकी जानकारी विस्तृत से बताऊंगा)
प्रसिद्ध आलोचक एवं संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात भगवदगीता के बारे में लिखते है, "गीता का रचयिता न संस्कृत व्याकरण का पूरी तरह ज्ञाता है और न उसे वेदों व दूसरे धर्म तथा दर्शन-सिद्धांतो का ठीक से ज्ञान है। गीता में 176 के लगभग व्याकरण विषयक गलतियां मिलती है, चार श्लोकों के बाद एक गलती कहीं संधिविषयक गलती है, तो कहीं गणविषयक; कहीं समास विषयक गलती है तो कहीं लकार विषयक।
अतः "यह निर्विवाद है कि गीता न कृष्ण की रचना है, न व्यास और न किसी विद्वान की, यह किसी कामचलाऊ पंडित की रचना है जो वेद, दर्शन और संस्कृत व्याकरण का भी ज्ञाता नहीं है।"
इस प्रकार निःसंदेह रूप से यह बात प्रमाणित होती है कि गीता कृष्ण के द्वारा न रची गई है या न कृष्ण का कोई उपदेश है। उसे बनाने वाले ने उपनिषद, मनुस्मृति, महाभारत और बौद्ध वांगमय से भी सामग्री लेकर, उसे तोड़-मरोड़कर व उसमें मिलावट करके इस रूप में प्रस्तुत किया है कि श्री कृष्ण जी को साक्षात परमेश्वर सिद्ध (बुद्ध को भुलाने और बुद्ध से मुकाबला करने) किया जा सकें । यदि ऐसा न करता तो उसे अपनी बात को प्रभाव पूर्ण ढंग से रखने का अवकाश भी नहीं मिल सकता था।
(बने रहिएगा... पढ़ेगा इंडिया...तभी तो आगे बढ़ेगा इंडिया... आगे जारी रहेगा गीता का रहस्य अगले पोस्ट में)
संदर्भ:
1. पालि साहित्य का इतिहास
2. गीता की शव परीक्षा - डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात
3. गीता विवेचन - डॉ. श्रीराम आर्य
4. भारत की गुलामी में गीता की भूमिका - आचार्य भद्रशील रावत
5. श्रीमद भागवद गीता
6. विकिपीडिया
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