गीताकार कृतज्ञ नहीं है !
ऐसा प्रतीत होता है की गीताकार कृतज्ञ नहीं है! वह कृघ्नता के साथ-साथ ईमानदार भी नहीं है। उसने गीता में जहा से सामग्री चोरी की है, उस सामग्री के स्रोत को न बताकर गीता को मौलिक कृति बनाने की घृष्टता की है। संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ डॉ. सुरेंद्र कुमार शर्मा कहते है की, "गीता यध्यपि एक स्वतंत्र पुस्तक है तथापि उसमे बहुत कुछ पहले विद्यमान वांगमय से लिया गया है। इसमें महाभारत के २७ पुरे श्लोक, कही कही अक्षरशः और कही थोड़े परिवर्तन से मिलते है।
ऐसे ही कठोपनिषद के ७ श्लोक गीता में अक्षरशः व कुछ परिवर्तन के साथ मिलते है श्वेताश्वतर उपनिषद के भी बहुत से श्लोक और भाव गीता में मिलते है। गीता के दूसरे अध्याय का आत्मा का वर्णन, आठवें अध्याय क अक्षर-ब्रह्म वर्णन और १३वें अध्याय के क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार अक्षरशः उपनिषदों से लिया गया है।
और भी बहुत सी पुस्तकों के भाव, शब्द और श्लोक गीताकार ने लिए है। उसने एक सभ्य लेखक की तरह उनके मूलस्रोतो का उल्लेख नहीं किया, बल्कि अपनी मौलिकता सिद्ध करने की उच्चाकांक्षा के वशीभूत होकर हर एक उठाए श्लोक व भाव को ऐसे पेश किया है, मानो वह उसकी अपनी रचना हो। आज अगर गीताकार ऐसा करता, शायद कॉपीराईट-कानून के अधीन जेल की हवा खाता। गीताकार के इस पक्ष की ओर विद्वानों ने ध्यान दिया है और सख्त टिप्पणियां भी की है।
लेकिन इस बात की ओर बहुत कम लोगो ने ध्यान दिया हैं की गीताकार ने बौद्ध वांगमय से भी बहुत कुछ उठाया है- कही भाव, कही उपमाएं और कही पारिभाषिक शब्दावली। यह अलग अलग बात है की उसने कही-कही मूल शब्दों को वह अर्थ में प्रयोग किया है, जो उनका असल में अर्थ नहीं है।
दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के विषय में १८ श्लोको में जो कुछ कहा है, ठीक वही कुछ बौद्ध वांगमय के सुत्तनिपात १८ गाथाओ में अंकित है।
गीता के अध्याय १२ में सच्चे साधक के जो गुण बताए गए है, वे बुद्धिज़्म से लिए गए है। इन्हे बौद्ध वांगमय में 'भावना' कहते है। भावना में चार ब्रह्मविहार होते है। वे निम्नलिखित है - करुणा, मैत्री, मुदिता और उपेक्षा।
गीता का १६वां अध्याय 'धम्मपद' और 'सुत्तनिपाद' पर पूरी तरह आधारित है। गीता में 'निर्वाण' शब्द बौद्ध धर्म से लिया गया है, क्योंकि वेदों, ब्राह्मण ग्रंथो तथा उपनिषदों में यह 'निर्वाण' शब्द कहीं नहीं है। गीताकार ने इसमें ब्रह्म शब्द जोड़कर इसे ब्राह्मणवादी शिक्षा बनाने की कोशिश की है। गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक ४० से ७२ तक ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करने के जो पांच सोपान बतलाए है, वे ये हैं- श्रद्धा, व्यवसाय, स्मृति, समाधी, प्रज्ञा। यही पांच सोपान आरंभिक बुद्धिज़्म में बतलाए गए है।
गीता का १७वा अध्याय तप के वर्गीकरण से संबंधित है। कृष्ण ने अपनी पूरी जिंदगी में कही तप नहीं किया या फिर कही पे भी कृष्ण के तप का वर्णन नहीं है तो फिर कृष्ण के पास तप का ज्ञान कैसे आया ? यह बुद्ध द्वारा तपस्या के विभिन्न वर्गों के विषय में प्रकट किये विचार है। गीता में विराट दर्शन भी कुछ कुछ बुद्ध तथा मार विजय की नक़ल है।
गीताकार ने बौद्ध संस्कृति और दर्शन के प्रचलित शब्दों को बहुत स्थानों पर अपना अर्थ देने की शरारतपूर्ण कोशिश की है। इसका उद्देश्य वही था, जो मछली पकड़ने के लिए फेंकी गई कंटिया के आगे लगे मांस का होता है, यानि बौद्ध विचारो से प्रभावित लोगों को इन शब्दों से आकृष्ट कर ब्राह्मणवादी शिक्षाए दिमागों में भरना।
हिन्दू वांग्मय के विद्वान् तथा भारतीय संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर का कहना है की, "गीता ने 'निर्वाण' सिद्धांत कहा से लिया ? निश्चय ही यह सिद्धांत उपनिषदों से नहीं लिया गया है क्योंकि किसी भी उपनिषद में 'निर्वाण' शब्द का उल्लेख नहीं है। यह बौद्ध धर्म से ली गई है। यदि इस संबंध में किसी को संदेह हो तो उसे भगवद्गीता के ब्रह्मनिर्वाण की तुलना बौद्ध धर्म की निर्वाण संबंधी अवधारणा से करना चाहिए जिसका विवेचन महापरिनिब्बान सुत्त में किया गया है।
गीता में भावना, कर्मयोग, लोक संग्रह, योगक्षेम, शब्द गीताकार ने बौद्ध धर्म से चुराये है। अतः डॉ. सुरेन्द्र कुमार अज्ञात का कथन शाट-प्रतिशत सही है की "बुद्ध और बुद्धिज़्म की शिक्षाओं का मुकाबला करने के लिए ब्राह्मणो ने अपने ग्रंथो की नए ढंग से व्याख्या शुरू की। कई नये ग्रंथो की रचना की और नायको और देवताओ को नए रूप में पेश किया। ब्रह्मसूत्र ऐसे ग्रंथो में मुख्य था। लेकिन वह सर्वजन सुगम नहीं था। अतः एक सरल ग्रन्थ था भगवद्गीता जिसमे बुद्ध के स्थान पर कृष्ण को स्थापित किया गया। "
संदर्भ:
1. गीता की शव परीक्षा - डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात
2. भारत की गुलामी में गीता की भूमिका - आचार्य भद्रशील रावत
3. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खंड - 7 - डॉ. आंबेडकर
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