May 23, 2017

डर, आस्था या अंधश्रद्धा ? - संजय पटेल

"डर" शब्द है तो बहुत छोटा लेकिन अगर इसे परिभाषित करे तो कह सकते है कि यह जीवन भर साये की तरह हमारे साथ चलता है और यह हमारी इच्छाशक्ति पर निर्भर रहता है कि हम इसे अपने से कितना दूर रह सकते है l डर कई प्रकार के होते है लेकिन मैं जिस डर की बात कर रहा हूँ वह है ईश्वर का डर l बहुत से लोग न चाहते हुए भी इस वजह से पूजा-पाठ नहीं छोड़ते कि कही उनका अनिष्ट न हो जाये पर क्या यह सच है ?
दूसरी बात हम अपनी किस्मत बदलने के चक्कर में मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाते रहते है लेकिन अगर मंदिर जाने से ही किस्मत बदल जाती तो आज मंदिरों की सीढ़ियों पर बैठने वाले भिखारियों की किस्मत पहले बदल जाती क्योकि वे भगवान के सबसे नज़दीक रहते है l आप ने यह भी देखा होगा कि मंदिर में चढ़ावे के सामान को देवी-देवताओं की मूर्ति तक पहुंचाने में 5 से 10 रुपये वह पर खड़े लोग वसूल लेते है l न देने पर हो सकता है आपको अपना चढ़ावा ठीक से न चढ़ा पायें l जाने अनजाने हम किसी और की तिजोरियां भरते जा रहे है यानि जो सदियों से हमें गुलाम बनाकर रखा और बाबा साहेब डा० अम्बेडकर जी ने हमें अपने संघर्ष से आज़ाद कराया l यह हमारी अज्ञानता का परिचय ही है कि हम यह नहीं समझ पाते कि जब वे लोग मंदिर में खड़े होकर पाप कर रहे है और कोई डर नहीं तो फिर हम घर में बैठ कर ईश्वर से क्यों डरते है l
इसके विपरीत अगर हम बौद्ध धम्म की बात करे तो वहां इस डर नाम की चीज़ नहीं मिलेगी क्योंकि बौद्ध धम्म आत्मा-परमात्मा को नहीं मानता l बौद्ध धम्म कहता है कि स्वयं की शक्ति पर विश्वास रखो और गौतम बुद्ध ने कभी अपने को ईश्वर की रूप में नहीं परिभाषित किया बल्कि उन्होंने अपने आपको मार्गदाता बताया और कहा कि मेरे बताये हुए रास्ते पर चलते है तो आप खुद का और समाज का हित कर सकते है इसी लिए युगपुरुष बाबा साहेब ने सभी धर्मों में बौद्ध धम्म को श्रेष्ठ माना और बौद्ध धम्म की दीक्षा ली l
प्यारे मित्रों हम सभी को जागरूक बनना पड़ेगा और लोगों को भी जागरूक करना होगा तभी हम देश में फैले पाखण्ड को मिटा सकते है l
- संजय पटेल



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