April 27, 2020

जूठन: एक दलित की आत्मव्यथा की कथा | Book Review

By Madhukar Chauhan  || 24 April 2020


ज्योतिबा फुले ने कहा था- "गुलामी की यातना को जो सहता है, वही जानता है और जो जानता है, वही पूरा सच कह सकता है. सचमुच जलने का अनुभव राख ही जानती है और कोई नहीं." 

ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ हिंदी साहित्य की मौलिक आत्मकथाओं में से एक है. ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं- ‘‘दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति ‘असंवेदनशील भी...। अपनी व्यथा-कथा को शब्द-बद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिल पा ही थी।...इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उघेड़ते हुए कई बार लगा-कितना दुखदायी है यह सब! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।’’1

दलित बालक ओमप्रकाश वाल्मीकि को चूहड़ा समझकर हेडमास्टर दिन भर लेखक से झाड़ू लगवाता है। लेखक के शब्दों में- "दूसरे दिन स्कूल पहुँचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर से झाड़ू के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाड़ू देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊंगा। तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, ‘अबे, ओ चूहड़े के, *** कहाँ घुस गया... अपनी माँ...’ उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी (सवर्ण) लड़के ने चिल्लाकर कहा, ‘मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।’ हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा के बाहर खींचकर उन्होंने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, ‘जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू..नहीं तो *** में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।"2 स्कूल के मास्टर से लेकर गाँव-घर के सामन्त व सेठ-साहूकार तक सभी दलित जीवन को लीलने के लिए तैयार बैठे थे। ‘जूठन’ दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का दस्तावेज है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने, जातीय अपमान और उत्पीड़न के जीवंत वर्णन के माध्यम से एक दलित की आत्मव्यथा को प्रस्तुत किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करते हुए हमारे समक्ष रखा है।

सन्दर्भ-सूची :-
1. वाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, भूमिका
2. वही पृ.सं.-15

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