(पिछली 2 पोस्ट गीता के रहस्य के बारे में थी उनमें बात छिड़ी थी कि गीता पे वार क्यों ? और मैने जवाब दिया था कि जिस ग्रंथ ने देश को गुलाम बनाया है और देश को विज्ञान से दूर रखकर हाँसी के पात्र बनाया है ऐसे ग्रंथो की सच्चाई तो बाहर लानी ही पड़ेगी न ! उसी परिप्रेक्ष्य में यह पोस्ट है)
संसार में मनुष्य समस्त प्राणियों में ज्ञानवान माना जाता है और इस ज्ञानवान की सबसे सुन्दर हसीन कल्पना यदि कोई है तो केवल आत्मा-परमात्मा की कल्पना ! इस हसीन कल्पना ने संसार के समस्त बुद्धिवादियों को चक्कर में डाला है। इस आत्मा-परमात्मा का न तो मनोवैज्ञानिक दॄष्टिकोण से कोई अस्तित्व है, न ही विकासवाद की दॄष्टि से अस्तित्व है, न प्राकृतिक रूप से अस्तित्व है, न वैज्ञानिक दॄष्टिकोण से अस्तित्व है और न अनुभव की कसौटी पर इसका अस्तित्व है। यह तो सिर्फ आत्मा-परमात्मा के नाम पर हलवा-मांडा खाने वाले पुरोहितों, मोटी-मोटी रकम डकार कर कवि-कर्म करने वाले कवियों की मात्र हसीन कपोल कल्पना है। अनुभव की कसौटी पर परखने के बाद ही सबसे प्रथम तथागत बुद्ध ने इस आत्मा-परमात्मा पर सशक्त हथौड़ा बजाया था। भदन्त आनंद कौशल्यायन कहते है, "कहने वालों का कहना है की तथागत बुद्ध ने ईश्वर का कहीं खंडन नहीं किया, वे ईश्वर के बारे में केवल मौन रहे। इस कथन में इतनी सच्चाई जरूर है की पालि त्रिपिटक में ईश्वर का अधिक खंडन-मंडन नहीं है। उसका कारण यह है कि उस समय तक स्वयं ईश्वर को पूरी तरह खड़ा नहीं किया गया था। तथागत बुद्ध के लगभग तीन सौ वर्ष बाद तक ईश्वर की कल्पना उत्तरोत्तर विकसित और परिवर्धित होती रही है। पतंजलि के समय तक कहीं जाकर 'ईश्वर' का अर्थ, जो आजकल ग्रहण किया जाता है, जड़ीभूत हुआ। किन्तु इसका यह मतलब नहीं की पालि-वांग्मय में ईश्वर का खंडन है ही नहीं। अंगुत्तर निकाय में तथागत बुद्ध का यह वचन सुरक्षित है, "भिक्खुओ कुछ लोग कहते ही की यह सृष्टि ईश्वरकृत है, तब तो वह ईश्वर बड़ा निर्दयी होगा, जिसने ऐसी दुखपूर्ण सृष्टि की रचना की है।"
वे आगे आत्मा के बारे में कहते है,"जो बात ईश्वर के बारे में कही जाती है अथवा जो भ्रांति जानबुझ कर ईश्वर के बारे में फैलाई जाती है, वैसी ही भ्रांति आत्मा के बारे में भी फैलाई जाती है कि तथागत बुद्ध ने आत्मा का कहीं खंडन नहीं किया अथवा उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को कहीं भी अस्वीकार नहीं किया। बुद्ध ने संसार भर के चिंतन जगत को जो सबसे बड़ी और अनमोल देन दी है, वह उनका अनात्मवाद ही है। उन्होंने आत्मवाद को 'सम्पूर्ण मूर्खता' या 'परिपूर्ण बाल-धर्म' कहा है।
ईश्वर तथा आत्मा के लिए बौद्ध धम्म में कोई स्थान न होना कुछ लोगों की दृष्टि में बौद्ध धर्म की कमी है। यह ऐसा ही है कि जैसे कोई कहे कि किसी भी स्वतंत्र आदमी के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी न होना उसकी कमी है।"
डॉ. आम्बेडकर का कथन है, "तथागत की दृष्टि में ईश्वर विश्वास बड़ी खतरनाक बात थी, क्योंकि ईश्वर विश्वास ही प्रार्थना और पूजा की सामर्थ्य में विश्वास का उत्पादक है और प्रार्थना कराने की जरूरत ने ही पंडा-पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग था जिसने इतने अंधविश्वासों को जन्म दिया और सम्यक दृष्टि के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया।"
बाबासाहेब प्रश्न करते हुए कहते है कि- "क्या तथागत बुद्ध आत्मा में विश्वास रखते थे ? नहीं, एकदम नहीं। आत्मा के संबंध में उनका 'अनात्मवाद' कहलाता है। यदि एक अशरीरी आत्मा को स्वीकार कर भी लिया जाय, तो उसके संबंध में बहुत से प्रश्न पैदा होते है। आत्मा क्या है ? आत्मा का आगमन कहाँ से हुआ ? शरीर के मरने पर इसका क्या होता है ? शरीर के न रहने पर यह परलोक में कैसे रहता है ? वहां यह कब तक रहता है ? जो लोग आत्मा के अस्तित्व के सिद्धांत के समर्थक थे, तथागत बुद्ध ने उनसे ऐसे प्रश्नों का उत्तर चाहा था।"
वैदिक साहित्य में कहीं आत्मा को 'अंगूठे' के समान, तो कहीं चावल के दाने के समान माना गया है। उपनिषदों ने एक निश्चित भ्रांति को पाला, उसका प्रचार कर भोले-भाले भारतीयों को गुमराह किया। इसका प्रभाव भगवद्गीता पर भी पड़ा है। गीता ने आत्मा-परमात्मा का प्रचार कर भारतीयों को अंधेरे में धकेला है।
(गीता और दूसरे धर्म ग्रंथो ने भारत की गुलामी में कैसे भूमिका निभाई है वह जानने और आत्मा-परमात्मा को जानने आगे पढ़ते रहिएगा... पढ़ेगा इंडिया...तभी तो आगे बढ़ेगा इंडिया...) भाग-2 जल्द ही आएगा...
संदर्भ:
1. तथागत का शाश्वत संदेश - भदंत आनंद कौशल्यायन
2. बुद्ध और उनका धम्म - डॉ. बी. आर. आम्बेडकर
3. गीता की शव परीक्षा - डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात
4. भारत की गुलामी में गीता की भूमिका - आचार्य भद्रशील रावत
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